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‼️ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼️
🐍🏹 *लक्ष्मण* 🏹🐍
🌹 *भाग - ४७* 🌹
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*➖➖➖ गतांक से आगे ➖➖➖*
*लक्ष्मण जी* को रथ में विलाप करते देखकर मंत्री सुमंत ने कहा :- महाभाग *लक्ष्मण !* तुम भक्ति , ज्ञान , वैराग्य एवं कर्मयोग के प्रकांड विद्वान हो , तुम को इस प्रकार का शोक करना शोभा नहीं देता | *लक्ष्मण* रोते हुए कहते हैं :- सुमंत्र जी ! जीवन भर धर्म एवं मर्यादा का पालन करने वाले श्री राम जी को आज इतना कष्ट भोगना पड़ रहा है | पहले पिताजी के आदेश से चौदह वर्षों का वनवास और अब पत्नी का वियोग यह दैव की कैसी माया है ?? जो राम जी :---
*यो हि देवान् सगन्धर्वान् सुरान् सह राक्षसै: !*
*निहन्याद् राघव: क्रुद्ध: स दैवं पर्युपासते !!*
हे सुमंत्र जी ! जो रघुनाथ जी कुपित होने पर देव , गन्धर्व तथा राक्षसों सहित सबका मूल विनाश करने में सक्षम है वही देव की उपासना कर रहे हैं (अपने कष्ट का निवारण नहीं कर पा रहे हैं) *लक्ष्मण जी* की बात सुनकर सुमंत्र जी कहते हैं कि *लक्ष्मण* यह संसार कर्म क्षेत्र है यहां जो जैसा करता है उसको वैसा ही फल भोगना पड़ता है | अनेक जन्मों में किए गए पाप पुण्य को भोगने के लिए ही मानव शरीर प्राप्त होता है | उसी के अंतर्गत महाराज श्री राम जी को भी पूर्व जन्म के शाप का फल भोगना पड़ रहा है | आश्चर्यचकित होकर *लक्ष्मण* ने कहा | क्या श्री राम ने कोई ऐसा पाप किया है ?? सुमंत्र जी ने कहा :- *लक्ष्मण !* यद्यपि श्रीराम ने पाप नहीं किया परंतु पूर्व जन्म का शाप उन्हें भोगना ही पड़ेगा , क्योंकि मुनियों के शाप एवं वरदान कभी मिथ्या नहीं होते | *लक्ष्मण !* परमयशस्वी महाराज दशरथ जी को जो कथा दुर्वासा जी ने सुनाई थी वह मैं तुमको सुना रहा हूं इसे सुनकर तुम सत्यता को जान जाओगे और तुम्हारा शोक नष्ट हो जाएगा | सुमंत्र जी कहते हैं *लक्ष्मण !* पूर्व काल में एक बार :---
*देव असुर संग्राम भयो ,*
*दैत्य तहाँ सब हारि के भागे !*
*प्रान बचावै बदे आपन ,*
*सब ठाढ़ि भये भृगुपत्नी के आगे !!*
*माता बचाय लियव हमका ,*
*सब प्रान कै भिक्षा मांगन लागे !*
*शरन दिहिन "अर्जुन" भृगुपत्नी ,*
*क्रोध किहिन लक्ष्मीपति जागे !!*
*लक्ष्मण !* देवासुर संग्राम में पराजित होकर भागे दैत्यों को भृगुपत्नी ने अपने आश्रम में संरक्षण दिया , तब कुपित होकर श्री विष्णु ने अपने चक्र से भृगु जी की पत्नी का सिर काट दिया | जब भृगु जी ने अपनी पत्नी का मृत शरीर देखा तो यह शोक से विह्वल होते हुए विष्णु जी से कहने लगे कि हे विष्णु :---
*यस्मादवध्यां मे पत्नीमवधी: क्रोध मूर्च्छित: !*
*तस्मात् त्वं मानुषे लोके जनिष्यसि जनार्दन !!*
*तत्र पत्नी वियेगं त्वं प्राप्स्यसे बहुवार्षिकम् !*
*लक्ष्मण !* शोक संतप्त महात्मा भृगु ने विष्णु भगवान को श्राप देते हुए कहा :- हे जनार्दन मेरी पत्नी शरण में आए हुए की रक्षा करने मात्र से वध के योग्य नहीं थी परंतु तुमने क्रोध में बिना विचार किए उसका वध किया है इसलिए मैं तुम को श्राप देता हूं कि आपको मृत्युलोक में जन्म लेना पड़ेगा और वहां बहुत वर्षों तक आपको पत्नी का वियोग सहन करना पड़ेगा | *लक्ष्मण !* आज श्री हरि विष्णु श्री राम के रूप में अयोध्या में अवतरित होकर पूर्व जन्म का श्राप भोग रहे हैं | इसलिए *लक्ष्मण* कर्म के अकाट्य सिद्धांत को कोई भी काट नहीं सकता | तुम्हारे जैसे कर्म के मर्म को समझने वाले को इस प्रकार विलाप शोभा नहीं देता | शोक से विह्वल *लक्ष्मण* को समझाते हुए रथ श्री राम के महल के पास पहुंच गया | *लक्ष्मण जी* रथ से उतरकर दीन हीन अवस्था में जब श्रीराम के पास पहुंचे तो देखते हैं कि:---
*सदृष्ट्वा राघवं दीनमासीन परमासने !*
*नेत्राभ्यामश्रुपूर्णाभ्यां ददर्शग्रजमग्रत: !!*
श्री राम दुखी होकर एक सिंहासन पर बैठे हैं और उनके दोनों नेत्रों में आंसुओं का समुद्र लहरें मार रहा है | *लक्ष्मण जी* ने पहुंचकर उनके चरणों को पकड़कर दुखी मन से रोते हुए कहा :--
*हे रघुनन्दन रघुकुल भूषण ,*
*आयसु पूरी भयउँ तुम्हारी !*
*मृत्यु समान उठायउँ कष्ट ,*
*तबहुँ जीवित यह देह हमारी !!*
*रथ बैठाइ के गंगा के पार ,*
*हम छोड़ि के आयन जनकदुलारी !*
*"अर्जुन" तीर खड़ी गंगा के ,*
*बिलखि के रोवत मातु हमारी !!*
*लक्ष्मण जी* का संदेश सुनकर श्री राम जी की आंखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी | *लक्ष्मण जी* ने जब श्रीराम की दशा देखी तो एक कर्म योगी की भांति खड़े हो गए | भगवत्प्रेमी सज्जनों ! *लक्ष्मण जी* का चरित्र बहुत ही अद्भुत है | क्षणभर में भावुकता की पराकाष्ठा को पार कर जाने वाले लक्ष्मण जी अगले ही क्षण गंभीर हो जाते हैं | प्रत्येक मनुष्य को देश काल परिस्थिति के अनुसार ही आचरण करना चाहिए | समय को पहचानकर *श्री लक्ष्मण जी* गंभीर होते हुए श्री राम से कहने लगे :---
*मा शुच: पुरुषव्याघ्र कालस्य गतिरीदृशी !*
*त्वद्विधा नहिं शोचन्ति बुद्धिमन्तो मनस्विन: !!*
*सर्वे क्षयान्ता: निचया: पातनान्त समुच्छया !*
*संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं च जीवितम् !!*
*लक्ष्मण जी* कहते हैं हे महाराज जी ! आप पुरुष सिंह हैं , वेद वेदांत के ज्ञाता होकर आपको यह तो पता ही है कि इस संसार में काल की गति बहुत ही तीव्र है इसलिए आप शोक ना करें | आप जैसे मनस्वी एवं बुद्धिमान को यह सब शोभा नहीं देता | हे रघुनंदन ! संसार में जितने भी संचय हैं उन सब का विनाश निश्चित है | उत्थान का अंत पतन एवं संयोग का वियोग तथा जीवन का अंत मृत्यु है | हे प्रभु ! आप आत्मा से आत्मा को , मन से मन को तथा संपूर्ण लोकों को भी संयत रखने में समर्थ हैं फिर आपके लिए अपने शोक को अपने बस में रखना कदापि असंभव नहीं है | *लक्ष्मण जी* का दिव्य उपदेश श्री राम जी बहुत ही ध्यान से सुन रहे है | *लक्ष्मण जी* अनवरत बोलते जा रहे हैं | जिस प्रकार मोहग्रस्त हुए *अर्जुन* को योगेश्वर श्रीकृष्ण दिव्य गीता का उपदेश देकर उनका मोह हरण कर लेते हैं उसी प्रकार आज मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को सर्वश्रेष्ठ योगी *लक्ष्मण* समझा कर उनके मोह का विनाश कर रहे हैं | *लक्ष्मण जी* कहते हैं :--
*नेदृशेषु विमुह्यन्ति त्वद्विधा पुरुषर्भा: !*
*अपवाद: स किल ते पुनरेष्यति राघव !!*
*यदर्थं मैथिली त्यक्ता अपवादभयान्नृप !*
*सो$पवाद: पुरे राजन भवुष्यति न संशय: !!*
*लक्ष्मण*;ने कहा भैया ! यदि आपको इसी प्रकार विलाप करना था तो सीता जी का त्याग न करके प्रजा का दमन कर देना था | जिसने भी सीता जी पर आक्षेप लगाया था उसको दंड देना था | जिस प्रजारंजन के लिए तथा लोकापवाद से बचने के लिए अपने पति चरणों में अनुराग रखने वाली विदेहनंदिनी का त्याग कर दिया है वहीं लोकापवाद पुनः हो सकता है | हे राघव ! यदि आप इसी प्रकार सीता जी के शोक एवं मोह से ग्रसित रहेंगे तो लोग कहेंगे कि दूसरे के घर में (लंका में) रही हुई स्त्री का त्याग करके दिन-रात उसी की चिंता में राम रोया करते हैं | इस प्रकार का अपवाद प्रजा में उठने लगेगा तो आपका यह त्याग निरर्थक हो जाएगा | इसलिए हे पुरषसिंह ! आप धैर्य से चित्त को एकाग्र करके इस दुर्बल बुद्धि का त्याग करें और संतप्त न हों | *लक्ष्मण जी* का दिव्य उपदेश सुनकर श्री राम की आंखों के आंसू सूख गये उनका मोह नष्ट हो गया | वे प्रसन्न होकर कहने लगे :--
*एवमेतन्नरश्रेष्ठ यथा वदसि लक्ष्मण !*
*परितोषश्च मे वीर मम कार्यानुशासने !!*
श्री राम कहते हैं :- हे नरश्रेष्ठ ! *महात्मा लक्ष्मण !* आज जो उपदेश तुमने हमें दिया है वह मुझे शोक सागर से उबारने में सहायक सिद्ध हुआ है | तुम बड़े सिद्ध एवं ज्ञानी हो | *लक्ष्मण !* इस दिव्य उपदेश ने मेरे दुख एवं मोह को छिन्न-भिन्न कर दिया है | आज से यह राम कभी भी मोह एवं शोक से ग्रसित नहीं होगा | आज तुमने इस राम को डूबने से बचा लिया है | *लक्ष्मण !* युग युगांतर तक मैं तुम्हारा ऋणी रहूंगा | *लक्ष्मण* की आंखों में आंसू आ गए और उन्होंने श्री राम के चरण पकड़ कर कहा :- भैया ! मैं तो आपका सेवक हूं मुझे चरणों में ही रहने दीजिए | श्री राम ने *लक्ष्मण* को उठाकर हृदय से लगा लिया और अयोध्या का राज्यकार्य संभालते हुए श्रीराम अपनी राज्यसभा की ओर *लक्ष्मण* को लेकर चल पड़े |
*शेष अगले भाग में :----*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
प्रवक्ता
श्रीमद्भागवत/श्रीरामकथा
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्याजी
(उत्तर-प्रदेश)
9935328830
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