*इस धरा धाम पर मनुष्य के साथ जुड़ी है मानवता एवं मानवीय गरिमा | साधारण जीवन से उठते हुए मानवीय गरिमा का पालन करके मानवता को अपनाने वाले ही महापुरुष कहे गए है | एक साधारण नागरिक का कर्तव्य मात्र अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करने तक होता है | दूसरों के अधिकारों पर अतिक्रमण न करना साधारण नागरिक का कर्तव्य है परंतु जो महापुरुष होते हैं , सज्जन पुरुष होते हैं उनकी शालीनता इससे ऊपर होती है | महापुरुषों की उदारता दूसरों के समक्ष आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करती है और उसके अनुकरण की प्रेरणा देती है | मानवीय गरिमा क्या होती है यदि इसका दर्शन करना हो मानस का अध्ययन करना चाहिए क्योंकि मानवीय गरिमा पर प्रकाश डालते हुए मानसकार बाबा गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भगवान श्रीराम के चरित्रों के माध्यम से बड़ी अच्छी व्याख्या की है जहां उन्होंने मानवता का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया है | महापुरुष वही है जो मनुष्यता का गौरव बढ़ाने वाली विभूतियों को समाज का ऋण और धरोहर मानते हैं और उनका सदुपयोग लोकमंगल के लिए करते हैं | बाबा जी अपने मानस में स्पष्ट लिख देते हैं :- "कीरति भनिति भूति भलि सोई ! सुरसरि सम सब कर हित होई !!" अर्थात कीर्ति ( प्रभाव ) कविता (:साहित्य ) और संपत्ति वही श्रेष्ठ है जो गंगा जी की भाँति सबका भला कर सके अर्थात जो विभूतियां लोकहित में न लग सके वह निकृष्ट है | विभूति वालों को जो विशेषताएं ईश्वर ने दी है उन्हें भगवान की धरोहर मानकर लोक कल्याण में ही उनका प्रयोग करना चाहिए | आवश्यकता से अधिक मात्रा में जमा संपत्ति का यही सदुपयोग है कि उसे जल्दी से सत्प्रयोजनों के लिए वितरित कर दिया जाय | मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम ने लोकहित के लिए अयोध्या का राज्य छोड़ दिया यदि वे चाहते तो माता कैकेयी के वरदान का विरोध भी कर सकते थे परंतु भगवान श्रीराम ने विचार किया अयोध्या का राज्य लेकर के मात्र अपना ही हित हो सकता है जबकि अयोध्या का राज्य त्याग करके बनवास जाने में लोकहित है | इसी लोकहित की भावना से समाज एवं संसार का कल्याण करने की कामना से भगवान श्रीराम ने माता के वरदान के अनुसार चौदह वर्षों का वनवास स्वीकार किया क्योंकि इस संसार में कुछ भी अपना नहीं है | महान वही है जो अपने लिए कुछ न करके लोकहित के लिए कार्य करें क्योंकि अपना पेट तो सभी भर लेते हैं परंतु जो संसार का पेट भर सके वही महापुरुष एवं ऐश्वर्यवान , संपत्तिवान एवं विभूतिवान कहा जा सकता है |*
*आज समाज में अनेकों संपत्तिवान ऐसे ही जो अधिक से अधिक धनार्जन कर लेना चाहते हैं | अपने धन को स्वयंहित में ही खर्च करने की मानसिकता रखने वाले तथा अच्छे बुरे - कर्मों के द्वारा अधिक से अधिक धन संपत्ति इकट्ठा कर लेने वाले शायद यह नहीं विचार कर पाते कि यह जो संपदा हम एकत्र कर रहे हैं यह ना तो कभी हमारी थी और ना ही कभी हमारी रहेगी | इसे लोकहित में जितना अधिक खर्च कर दिया जाए उतना ही उचित होगा | मेरे "आचार्य अर्जुन तिवारी" के कहने का अर्थ यह नहीं है कि कोई अपना धन लूटा दे परंतु यह भी सत्य है की अधिक संपत्ति इकट्ठा करने वाले उसका उपभोग नहीं कर पाते हैं | इतिहास में अनेकों उदाहरण हैं जहां मनुष्य जीवन भर धन संपत्ति एकत्र करता है परंतु अंत में उसके साथ कुछ भी नहीं जाता | यही जीवन का यथार्थ सत्य है कि "इस धरा का धरा पर धरा रह जाएगा" कोई भी कुछ साथ में ना लेकर आया है ना लेकर जाएगा | लंकापति रावण ने सोने की लंका का उपभोग किया देवता , दानव , मानव सबको जीत लिया परंतु विचार कीजिए उसके साथ क्या गया ? इसी प्रकार अनेकों उदाहरण समाज में देखने को मिल जाएंगे | आज लोकहित के नाम पर अनेकों संस्थायें नित्य बन रही हैं परंतु उनसे जितना लोकहित हो रहा है उसका चारगुना संस्था के सदस्य अपना हित कर रहे हैं | विभूतवान /सम्पत्तिवान लोग नित्य नई सम्पत्ति बनाने में लगे हुए हैं | आज अपनी सम्पत्ति बनाने वाले दूसरों की सम्पत्ति देखकरके तनिक भी प्रसन्न नहीं होते बल्कि वे तो "देखि न सकइं पराइ विभूती" को चरितार्थ कर रहे हैं | परोपकार की भावना लोकहित की भावना है इसे अपनाकर ही मानवता का उदाहरण पिरस्तुत किया जा सकता है सम्मान सदैव त्याग में मिलता है इसका ध्यान सदैव रखना चाहिए |*
*किसी के पास बहुत सम्पत्ति हो और उसका पड़ोसी भूखों मर रहा हो तो उसकी सम्पत्ति व्यर्थ ही है | अत: महान वही है जिसके हृदय में मानवता हो |*