*सनातन धर्म में अनेकों व्रत उपवास बताए गए है जो मनुष्य को भौतिकता से कुछ क्षण के लिए उबार कर सात्त्विकता की ओर अग्रसर करते हैं | अपनी संस्कृति एवं संस्कार को.जानने का सशक्त साधन हैं समय समय पर पड़ने वाले हमारे व्रत एवं उपवास | वैसे तो सनातन धर्म में व्रत उपवासों की वृहद श्रृंखला है परंतु कुछ व्पत विशेष होते हैं | इन्हीं विशेष व्रतों में से एक है एकादशी का व्रत | सभी प्रकार के व्रतों का मुकुट एकादशी को कहा जाता है | सनातन धर्म में जन्म लेने के बाद यदि एकादशी का व्रत न किया जाय तो अनेक प्रकार व्रत उपवास सब व्यर्थ हैं | वर्ष भर में चौबीस एकादशियाँ होती हैं जिस वर्ष अधिकमास लगता है उस वर्ष इनकी संख्या छब्बीस हो जाती है | प्राय: एक प्रश्न आम जनमानस में उठता है कि एकादशी का व्रत करना कब से प्रारम्भ किया जाय ? इस प्रश्न का उत्तर हमारे शास्त्रों में प्राप्त होता है कि मार्गशीर्ष कृष्णपक्ष की एकादशी अर्थात आज से ही वर्ष पर्यन्त एकादशी व्रत रहने का शुभारम्भ किया जाता है | आज से ही यह व्रत क्यों रहा जाय ? इसके समाधान में हमारे शास्त्र बताते हैं कि आज के ही दिन अर्थात मार्गशीर्ष कृष्णपक्ष को ही भगवान श्रीहरि विष्णु के शरीर से एकादशी की उत्पत्ति हुई थी इसीलिए मार्गशीर्ष कृष्णपक्ष की एकादशी को "उत्पन्ना एकादशी" के नाम से जाना जाता है | भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त करने के लिए एकादशी का व्रत बहुत सरल साधन है | यह व्रत करने वालों पर भगवान विष्णु एवं माता लक्ष्मी की असीम कृपा सदैव बनी रहती है | एकादशी व्रत करना यदि प्रारम्भ करना है तो "उत्पन्ना एकादशी" से ही प्रारम्भ करना उचित एवं उत्तम हैं | इस व्रत का प्रभाव देवताओं के लिए भी दुर्लभ माना जाता है | आज विधि विधान से भगवान श्री हरि विष्णु की उपासना करने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है | इस व्रत में मन की सात्विकता का विशेष ध्यान रखना चाहिए | यदि पूर्ण सात्त्विकता एवं विधि विधान से यह व्र किया जाय तो इसके प्रभाव से मन निर्मल होने के साथ शरीर स्वस्थ होता है | व्रत में भगवान श्री हरि को फलों का ही भोग लगाकर दीपदान करना चाहिए | द्वादशी के दिन निराश्रितों को दान देकर पारण करें | एकादशी माता को स्वयं भगवान विष्णु ने आशीर्वाद देकर इस व्रत को पूजनीय बनाया | उत्पन्ना एकादशी का व्रत सच्चे मन एवं पूर्ण श्रद्धा विश्वास से करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं |*
*आज आधुनिक युग में व्रतों का महत्त्व तो खूब बढ़ा है परन्तु लोग प्राय: यह कहते हुए सुने जा सकते हैं कि अनेकों व्रत उपवास करने के बाद भी कोई मनोकामना नहीं पूर्ण होती है | इतना सबकुछ करने के बाद भी परिणाम नहीं मिल रहा है | मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का विचार है कि यदि किसी व्रत का यथोक्त फल नहीं मिल रहा है तो कमी उस व्रत विधान में नहीं बल्कि व्रत करने वाले की मानसिकता में है | जिस प्रकार एक परीक्षा देने बैठे लाखों विद्यार्थियों को एक ही प्रश्नपत्र मिलने के बाद भी कोई विद्यार्थी पूरे देश में प्रथम आता है तो कोई अनुत्तीर्ण होकर प्रश्नपत्र में अनेक कमियाँ गिनाने लगता है , व्यवस्थाओं को दोष देने लहता है | यदि प्रश्नपत्र या व्यवस्थाओं में कमी होती तो अनेक विद्यार्थी उत्तीर्ण कैसे होते ? कमी किसी भी परीक्षा / व्रत - उपवास में न होकर स्वयं में होती है | आज यदि किसी भी व्रत उपवास पूजा पाठ का फल मनुष्य को नहीं प्राप्त हो रहा है तो उसका एक ही कारण है कि आज मनुष्य कोई भी व्रत निष्काम भावना एवं पूर्ण मनोयोग से न करके दिखावा मात्र कर रहा है | सनातन धर्म में सूर्य को साक्षी माना गया है कोई भी व्रत सूर्योदय के साथ प्रारम्भ होकर अगले दिन सूर्योदय तक माना जाता है | किसी भी व्रत में निद्रा को निषेध बताया गया है अर्थात जिस दिन व्रत किया जाय उस रात्रि को सोना नहीं चाहिए बल्कि रात्रि भर भजन कीर्तन करते हुए सूर्योदय पर व्रत का पारण करना चाहिए | सात्त्विकता बनाये रखनी चाहिए | परंतु आज लोग छोटे से छोटे व्रत का भी विधान पूर्णरूप से पालन नहीं कर पा रहे हैं और फल पूरा चाहते हैं | किसी भी व्रत का फल तभी प्राप्त हो सकता है जब उसके विधान को पूर्णरूप से पालन किया जाय | चिकित्सक रोगी को औषधि देने के बाद कुछ खाद्य पदार्थ त्यागने या कुछ आदतों को त्यागने का निर्देश देते हैं | औषधि नित्य सेवन की जाय परंतु चिकित्सक द्वारा बताई गयी वस्तुओं को वर्जित न करके उनका सेवन करते रहा जाय तो विचार कीजिए कि औषधि कितना लाभ पहुँचायेगी ? उसी प्रकार कोई भी व्रत खूब उत्साह से कपने के बाद भी ग्रहणीय एवं वर्जित नियमों का ध्यान रखके उसका पालन न किया जाय तो मनोवांछित फल भला कैसे पेराप्त हो सकता है | आज यदि किसी भी व्रत का फल नहीं मिल पा रहा है तो इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि कमी उस व्रत में हो गयी है | उस व्रत विधान में कोई नहीं बल्कि कमी स्वयं में है मनुष्य को आत्मावलोकन करके स्वयं की कमियों को ढूंढ़कर उसे दूर करने का प्रयास करना चाहिए | जिस दिन मनुष्य ऐसा करने में सफल हो जाता है उसी दिन उसे प्रत्येक व्रत का फल प्राप्त होने लगता है |*
*आज मार्गशीर्ष कृष्णपक्ष की "उत्पन्ना एकादशी" से इस व्रत का संकल्प लेकर वर्ष भर प्रत्येक माह की दोनों एकादशियों का पूर्ण श्रद्धा विश्वास एवं सात्त्विकता के साथ व्रत करने से मनुष्य को कुछ भी अप्राप्त नहीं रह जाता है |*