*सुंदर सृष्टि का निर्माण करके परमात्मा चौरासी लाख योनियों के मध्य मनुष्य को अनगिनत विभूतियों एवं अनन्त संपदाओं से सुसज्जित करके इस धरा धाम पर भेजा है | सही एवं गलत का निर्णय करने के लिए उसमें विवेक नामक शक्ति आरोपित कर दी है | सही समय पर उठाए गए सही कदम जीवन की सही दिशा का निर्धारण करते हैं एवं जीवन में उठा हुआ एक भी गलत कदम मनुष्य को पतन की ओर ले जाता है | इस बहुमूल्य जीवन को पतन के बंधनों में बंधकर व्यतीत करने के स्थान पर परिष्कार व प्रभुत्व के मार्ग पर ले चलना ही श्रेष्ठ है | मनुष्य अपने जीवन काल में सभी निर्णय स्वयं करता है , हमें क्या करना है ! क्या बनना है !! या हम क्या कर रहे हैं !! इसका चयन स्वयं मनुष्य करता है | ईश्वर ने भाग्य का निर्माण करके मनुष्य को तो भेज दिया है परंतु मनुष्य स्वयं अपना "भाग्यविधाता" है जैसा चाहे वैसे मार्ग का निर्माण कर सकता है | मनुष्य को आदिकाल से यह अधिकार प्राप्त है कि वह मनचाहे विचारों को आकर्षित करें व उनके अनुरूप कर्म करें | कर्म करने की स्वतंत्रता मनुष्य का जन्म सिद्ध अधिकार है | यदि वह कुछ नहीं कर सकता है तो वह अपने किए हुए कर्मों के फल का चयन नहीं कर सकता क्योंकि कर्म का अधिकार मनुष्य को है परंतु फल देने का अधिकार परमात्मा को है | वह परमात्मा मनुष्य को शुभ कर्मों के शुभ फल एवं अशुभ कर्मों के अशुभ फल प्रदान करता रहता है जिसे मनुष्य को स्वीकार ही करना पड़ता है परिणाम जैसा भी मिले | सत्य ही है कि कर्मों के चयन का स्वतंत्र अधिकार मनुष्य को है जिस प्रकार शुभ कर्म करके वह समाज में प्रतिष्ठित हो सकता है उसी प्रकार नकारात्मक कर्मों के द्वारा वह समाज से बहिष्कृत भी हो जाता है | जिन कर्मों के द्वारा मनुष्य को सम्मान या अपमान प्राप्त होता है वह कर्म किसी दूसरे के नहीं बल्कि उसके स्वयं के किए होते हैं शायद इसीलिए मनुष्य को स्वयं का "भाग्यविधाता" कहा गया है |*
*आज समाज में अनेक लोग ऐसे देखे जा सकते हैं जो अपने किए गए कर्मों के द्वारा समाज एवं परिवार से बहिष्कृत होकर जीवन यापन कर रहे हैं | अपने कर्मों का फल भुगत रहे लोग प्राय: अपने भाग्य का दोष देते हैं | समाज , परिवार एवं ईश्वर पर दोषारोपण करने वाले इन लोगों को मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" बता देना चाहता हूं कि मकड़ी जिस जाले में फंसती है वह स्वयं उस का बनाया हुआ होता है , रेशम का कीड़ा जिस जाल में फंस कर के अपने जीवन को समाप्त कर देता है वह उसी के मुख से निकला हुआ होता है या फिर यूं कहें कि जिस हड्डी को चबाने में कुत्ते के मुख से रक्त निकलने लगता है वह जबरदस्ती कोई उसके मुख में नहीं रखता बल्कि वह स्वयं उसको ग्रहण करता है | इसी प्रकार मनुष्य यदि किसी कर्म का परिणाम भुगत रहा है तो वह कर्म स्वयं उसके द्वारा किए गए हैं किसी ने उसे जबरन नहीं करवाए होते हैं | यह सनातन धर्म की दिव्यता है कि यदि यहां पर बंधन है तो बंधन से मुक्त होने की व्यवस्था भी बनाई गई है | इंद्रिय सुख की कामना मनुष्य करता है तो उसके विकार से उत्पन्न रोग , शोक , पतन के जाल में स्वयं बंधता चला जाता है | उनसे बचने के लिए प्रारंभ से ही अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण कर लेना ही मनुष्य के लिए सुंदर फल प्रदान करने वाला है | ऐसा करके ही मनुष्य जीवन की दिशा को सुंदर बना सकता है अन्यथा अपने भाग्य के लिए ईश्वर को दोष देना व्यर्थ ही है | मनुष्य को ऐसा लगता है कि हमारे भाग्य में दोष ही दोष हैं , मेरा भाग्य खोटा है , परंतु यह भी विचार करना चाहिए कि यह अकाट्य सत्य है कि कर्मों के चयन का स्वतंत्र अधिकार मनुष्य को ही है | ऐसी सृष्टि के माया - प्रपंच में फंसने का , विषरूपी विषयों की जंजीरों में जकड़ने का चयन भी मनुष्य स्वयं ही करता है | इसके लिए माया , प्रपंच , ग्रह , नक्षत्र , टोने-टोटके आदि को दोष देना अनर्गल प्रलाप के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है | इसलिए दूसरों को दोष देने की अपेक्षा अपने कर्मों में सुधार करने की आवश्यकता है | जिस दिन मनुष्य विचार कर लेगा कि वह स्वयं का "भाग्यविधाता" है उसी दिन सै उसके कर्म सकारात्मक होने प्रारंभ हो जाएंगे और उसे फिर किसी से कोई शिकायत नहीं रह जाएगी | प्रत्येक मनुष्य को सकारात्मकता के साथ अपना "भाग्यविधाता" बनने का प्रयास करना चाहिए |*
*कर्मफल के सिद्धांत को कोई नहीं काट सकता और यह कर्म कैसे होंगे इसका निर्णय स्वयं मनुष्य के द्वारा ही किया जाता है | इसलिए कर्मों का चयन करने में सावधानी की आवश्यकता है |*