माँ
हम जिसे पूजते है उसे कई रुपो में मानते है। कोई माँ कहता है कोई ईश्वर कोई परमात्मा कोई भगवान तो कोई अल्लाह कहता है। उस निराकार को लोग दो रुपो में विभाजित करते है एक पुरुष रुप व एक स्त्रैण रुप। इस संसार में बुद्धजीवी दो रुपो में मिलते है पुरुष व स्त्री ।नर व नारी हम उस महाशक्ति मान को माँ का रुप दे देते है। वही इस सृष्टि को चलाती है । हम परमेश्वर रुप में पूजते है और उसे बलशाली मानते हैं।
हमारे आसपास एक स्त्री दिखाई देती है जो माँ ,पत्नी ,बहन रुपो में होते है । वह माँ बनकर बच्चे का पालन पोषण करती है ।पत्नी बनकर घर का देखभाल करती है और एक बहन बनकर भी घर की हितैषी ही है । लेकिन हम उस निराकार सृष्टि के रचयिता को माँ रुप में पूजते है। स्त्रैण रुप में पूजते है। स्त्री शरीर से सुंदर व कोमल होती है जबकि पुरुष कठोर होता है। सहनशक्ति स्त्रियो में अधिक पाया जाता है जबकि पुरुष सह नही पाता जवाब दे देता है। स्त्री का कार्य एक से अधिक है वह बाहर समाज के व घर का कार्य भी करती है। क्या यह पुरूष से सम्भव है? आप लोग खुद सोचिए शायद इसलिए हमने ईश्वर को माँ भी माना है।
रामकृष्ण परमहंस उस सर्व शक्तिमान को माँ काली के रूप में पूजते थे।
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