*इस संसार में जन्म लेने के बाद प्रत्येक मनुष्य जीवन को सफल बनाने के लिए , या किसी भी प्रकार की सफलता प्राप्त करने के लिए एक लक्ष्य निर्धारित करता है और उसी लक्ष्य पर दिन रात चिन्तन करते हुए कर्म करता है तथा अपने लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास करता है | कोई भी लक्ष्य तभी प्राप्त किया जा सकता है जब अपने लक्ष्य के प्रति पूर्ण समर्पण हो | यद्यपि प्रत्येक मनुष्य का लक्ष्य भिन्न भिन्न होता है फिर भी प्रत्येक मनुष्य का माँ के गर्भ से ही एक लक्ष्य निर्धारित हो जाता है वह है भगवत्प्राप्ति | माँ के गर्भ में ही जीव भगवान से वायदा करता है कि मैं आपका भजन करूँगा परंतु संसार में आने के बाद वह माया के प्रपंचों में वह अपने वायदे को भूल जाता है | कुछ समय व्यतीत होने पर , कुछ सतसंग प्राप्त होने पर वह भगवत्प्राप्ति का साधन ढूंढ़ने कै प्रयास करने लगता है | भगवत्प्राप्ति का सबसे सरल साधन है भक्ति करना | भक्ति तब तक नहीं हो सकती जब तक मनुष्य का मन निर्मल नहीं होगा | भगवान ने स्वयं घोषणा की है :-- "निर्मल मन जन सो मोंहिं पावा" | मनुष्य का मन तभी निर्मल हो सकता है जब उसका वश अपनी इन्द्रियों पर हो | जितेन्द्रिय बनकर ही भगवान को प्राप्त किया जा सकता है क्योंकि मनुष्य अनेक प्रकार के पाप इन्द्रियों के वशीभूत होकर ही किया करता है | जब तक मन निर्मल नहीं होगा तब तक कथा सतसंग में जाने की इच्छा ही नहीं होगी फिर जितेन्द्रिय बन पाना बहुत ही कठिन हो जाता है | महाराज दशरथ ने (महाराज मनु ने) अपनी दशों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके ही पुत्र रूप में नारायण को प्राप्त किया था | पाँच वर्ष के छोटे बालक ध्रुव ने उस अवस्था में भी निर्मल मन से अपनी माता की शिक्षा को हृदय में धारण करके यमुना किनारे अपनी समस्त इन्द्रियों को वश में करके जितेन्द्रिय होकर ही भगवान को प्राप्त करने में सफल हुए थे | कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान को प्राप्त करने के अनेक साधनों में सबसे सरल साधन यही है कि कोई भी विधान करने के पहले अपने मन को माया के प्रपंचों से दूर करके अपनी इन्द्रियों को अपने वश में कर ले | जिस दिन मनुष्य का मन निर्मल हो जायेगा , जिस दिन वह जितेन्द्रिय हो जायेगा उस दिन भगवान को र्राप्त करने के लिए उसे कहीं अन्यत्र नहीं जाना पड़ेगा , कोई भी साधन नहीं साधना पड़ेगा |*
*आज के युग में मनुष्य अनेकानेक लक्ष्य निर्धारित करके उसे प्राप्त कर रहा है बहुत माया के प्रपंचों में फंसकर मनुष्य अपने वास्तविक लक्ष्य को भूल गया है | जब मनुष्य की कुछ आयु व्यतीत हो जाती और वह अपने जीवन के झंझावातों से ऊब जाता है तब वह भगवान की ओर उन्मुख होता है और भगवत्प्राप्ति का साधन ढूंढने का प्रयत्न करने लगता है | यह भी सत्य है कि मनुष्य अनेकानेक साधन साधते हुए जप - अनुष्ठान , साधना - उपासना करके वह भगवान को प्राप्त करने का प्रयास भी करता दिख रहा है परंतु कहीं ना कहीं से वह अपने मन को निर्मल नहीं कर पा रहा है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" आज समाज में अनेकों साधकों को देखता हूं जो अपनी साधना को दिन प्रतिदिन उग्र करते चले जा रहे हैं परंतु जो करना चाहिए वह नहीं कर पा रहे है | मन को निर्मल करने का सबसे सरल साधन है सत्संग करना | सत्संग के माध्यम से ही मनुष्य का विकार धुल सकता है और उसका मन निर्मल हो सकता है परंतु आज सब कुछ दिखावे के लिए किया जा रहा है | आज अपनी इंद्रियों पर किसी का भी वश नहीं है शायद इसीलिए मनुष्य सब कुछ करने के बाद भी कुछ नहीं प्राप्त कर पा रहा है | सर्वप्रथम मनुष्य को अपनी इंद्रियों को अपने वश में करने का प्रयास करना चाहिए परंतु आज मनुष्य स्वयं अपनी इंद्रियों के वशीभूत हो करके अनेक क्रियाकलाप कर रहा हैं ऐसे में वह भगवान की ओर उन्मुख ही नहीं हो पाता | जब मनुष्य पूर्ण समर्पण भाव से भगवान के समक्ष चला जाता है तो उसके कोटि जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं परंतु आज मनुष्य वही नहीं कर पा रहा है | आज भगवान के समक्ष जाने पर उसके मन में अनेकों कामनाएं प्रकट हो जाती है | निष्काम भावना एवं निर्मल मन लेकर वह भगवान के समक्ष जा ही नहीं पा रहा है यही कारण है भगवान को प्राप्त करने का सबसे सरल साधन भक्ति उसके हृदय में प्रकट नहीं हो पा रही है |*
*भगवान प्राप्त करने के अनेक साधनों में सबसे सरल साधन है भक्ति करना और भक्ति का प्राकट्य तभी हो सकता है जब मनुष्य का मन निर्मल हो |*