*इस धरा धाम पर जन्म लेने के बाद मनुष्य अपने जीवन भर में अनेकों क्रियाकलाप करता है परंतु जो करना चाहिए वह शायद नहीं कर पाता है | हमारे महापुरुषों ने इस जीवन को क्षणभंगुर कहा है , इस जीवन को क्षणभंगुर मानते हुए हमारे महापुरुषों ने जीवन के प्रारंभिक समय से ही आध्यात्मिक बनने का एवं बनाने का प्रयास किया है | ईश्वर को प्राप्त करने के लिए या धर्माचरण करने के लिए मनुष्य को वृद्धावस्था की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए , यही शिक्षा हमको हमारे पूर्वजों से मिली है | क्योंकि वृद्धावस्था आएगी कि नहीं आएगी इसका कोई भरोसा ही नहीं है , यह जीवन कब समाप्त हो जाएगा इसको जानने वाला परमात्मा के अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं है , इसलिए मनुष्य को जीवन के प्रारंभिक स्तर पर ही आध्यात्मिक बनने का प्रयास प्रारंभ कर देना चाहिए | परंतु मनुष्य की मानसिकता बड़ी विचित्र है कि बचपन तो खेलकूद में निकल जाता है और युवावस्था विषय भोग में , जब वृद्धावस्था आती है तब मनुष्य धर्माचरण करने का प्रयास करता है , तीर्थाटन करने का प्रयास करता है परंतु तब उसके शरीर के अंग उसका साथ देने से मना कर देते हैं | ऐसी स्थिति में मनुष्य के पास वृद्धावस्था में अपनी चारपाई पर लेट कर पश्चाताप करने के अतिरिक्त कोई दूसरा विकल्प नहीं बचता है | वृद्धावस्था में पश्चाताप न करना पड़े इसलिए मनुष्य को युवावस्था में ही धर्माचरण करना प्रारंभ कर देना चाहिए | अनेकों उदाहरण हमें इतिहास में देखने को मिलते हैं बालक ध्रुव , बालक प्रहलाद , सुधन्वा , बर्बरीक , बाल हनुमान आदि ने वृद्धावस्था की प्रतीक्षा नहीं की बल्कि बचपन से ही अपने कर्मों के आधार पर ईश्वर को प्राप्त किया | जो भी मनुष्य ईश्वर के प्रति भक्ति एवं सकारात्मकता के साथ कर्म करने का प्रयास आने वाले कल के ऊपर छोड़ता रहता है वह जीवन भर कुछ नहीं कर पाता , अंततोगत्वा वह पश्चाताप की अग्नि में जलते जलते जीवन समाप्त कर देता है | इसलिए मनुष्य को स्वयं में संस्कारों का आरोपण , सदाचरण , धर्माचरण जीवन के प्रारंभिक स्तर से ही प्रारंभ करना चाहिए क्योंकि किसी महल की नींव जितनी मजबूत होगी महल की दीवालें एवं छत भी उतनी ही मजबूत होगी |*
*आज संसार में आधुनिकता का बोलबाला है | यह जो संदेश मैं लिख रहा हूं इस संदेशों को पढ़ने वाला एवं इस पर ध्यान देने वाला बिरला ही कोई मिलता है | कोई धन के मद में चूर है , कोई विद्या के मद में चूर है , कोई अपनी युवावस्था के मद में चूर है और कोई अपने जीवन के उज्जवल भविष्य को बनाने में चूर है | किसी का भी ध्यान ही नहीं जाता है कि आखिर हम इस संसार में क्यों आए हैं ? जो भी मनुष्य अपने धन , आयु , उज्जवल जीवन एवं जवानी के मद में चूर हैं उनसे मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" बताना चाहता हूं कि है भैया हमारे शास्त्रों का अध्ययन करो तब आपको पता चलेगा कि जिसके मद में आप चूर हैं वह क्या है | हमारे शास्त्रों में लिखा है :-"अर्थो: पादरजोपमा गिरिनदीवेगोपमं यौवनम् ! आयुष्यं जललोलबिन्दुचपलं फेनोपमं जीवनम् !! धर्मं यो न करोति निन्दिमति: स्वर्गार्गलोद्घाटनम् ! पश्चात्तापयुतो जरापरिगत: शोकाग्निना दह्यते !!" अर्थात :- इस संसार में धन पैर की धूल के समान है , जवानी पहाड़ी नदी के वेग के समान है , आयु पानी के चंचल बिंदु के समान चंचल है एवं जीवन फेन अर्थात बुदबुदे के समान है ऐसी स्थिति में जो मूर्ख स्वर्ग के द्वार को खोलने वाले धर्म का आचरण नहीं करता वह बाद में वृद्धावस्था से ग्रस्त होकर ताप से युक्त हुआ शोक रूपी अग्नि में जलता रहता है | यदि शोक अग्नि से वृद्धावस्था को बचाना है तो युवावस्था में ऐसे कृत्य करने चाहिए जिससे कि आने वाला भविष्य सुखमय रहे | मेरे कहने का अर्थ यह नहीं है कि आधुनिक युग में रहकर आधुनिकता का त्याग कर दिया जाय ! बिल्कुल त्याग ना किया जाय ! परंतु आधुनिकता के भंवर में फंसकर अपनी सनातन संस्कृति को एवं अपने कर्म को ना भुला कर उसके अनुसार भी आधुनिकता का आनंद लिया जा सकता है | परंतु आज आधुनिकता के इस भंवर में प्रत्येक व्यक्ति फंस गया है जिसका परिणाम यह निकल रहा है कि आज प्रायः लोगों ने अपने संस्कार एवं संस्कृति का त्याग कर दिया है | यह त्याग उन्होंने कर दिया है या उनसे हो गया है यह कह पाना थोड़ा कठिन है परंतु यह सत्य है कि आज हमने अपने सद्ग्रंथों का अध्ययन करना बंद कर दिया है , जहां से हमको अपने संस्कारों की शिक्षा मिलती है | अंत में यही कहना चाहूंगा कि हम भले आधुनिक बनते जा रहे हो परंतु अपनी पुरातन संस्कृति को भी ना भूलें |*
*भविष्य की योजनाएं अवश्य बनानी चाहिए परंतु यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इस जीवन का कोई भरोसा नहीं है इसलिए प्रतिदिन ऐसे कार्य करते रहना चाहिए जिससे कि अकस्मात भी यदि इस संसार से जाना पड़े तो पश्चाताप ना हो |*