*इस धराधाम पर मनुष्य का प्रादुरुभाव मैथुनीसृष्टि के द्वारा हुआ | यहाँ आकर मनुष्य विवाह बन्धन में बंधकर सन्तानोत्पत्ति करके अपने पितृऋण से उऋण होता है | सन्तान पुत्र हो चाहे पुत्री दोनों को समान सम्मान मिलता है | यदि हमारे धर्मशास्त्रों में पुत्र की महत्ता को दर्शाते हुए "अपुत्रस्तो गतिर्नास्ति" लिखा गया है तो , यह भी लिखा है कि "बिना कन्यादान किये मनुष्य को गति नहीं मिलती है" कहने का तात्पर्य यह है कि पुत्र एवं पुत्री दोनों की ही समान आवश्यकता इस संसार में है | पुत्र से ज्यादा पुत्री का महत्त्व है | क्योंकि पुत्र तो अपने ही कुल को प्रकाशित करता है परंतु पुत्रियां दो कुलों को प्रकाशमान करती हैं | जिस प्रकार प्रकाश सबको समान रूप से प्रकाशित करता है उसी प्रकार पुत्री भी प्रकाश की ही तरह बिना भेदभाव के प्रकाश प्रदान करती रहती है | पुत्री कुल की मान , पिता का सम्मान होती है | एक पुत्री का प्रथम लक्ष्य अपने संस्कार , संस्कृति का अध्ययन करना होता है | जिस पुत्री ने अपने संस्कारों एवं संस्कृति का अध्ययन नहीं किया वह अपने पुत्री
धर्म को नहीं निभा सकती है | वाणी , आचार , विचार का समुचित
ज्ञान न होने पर कुलों को प्रकाशित करने वाली पुत्री संस्कारविहीन होकर जीवन में अंधेरा भी कर सकती है | संस्कृति की रक्षा का दायित्व यदि पुत्रों पर है तो उससे कहीं अधिक पुत्रियों पर है | मां से कार्य कुशलता , कला , धर्म आदि की शिक्षा लेकर पिता से मर्यादा की सीख लेने वाली एक पुत्री को सदैव मर्यादा के बन्धन में ही रहना चाहिए ! मर्यादा का उल्लंघन करके पुत्री अपने अमर्यादित कृत्यों से अपने पिता को जीते जी मृतक बना देती है | अत: माता - पिता को पुत्र से अधिक पुत्री की शिक्षा - दीक्षा के साथ ही कुल मर्यादा , संस्कार आदि का ज्ञान भी कराते रहना चाहिए |* *आज हमारे
देश पर पाश्चात्य संस्कृति ने पूरा प्रभाव जमा लिया है | आज के युग में पुत्रियां उच्छृंखल होकर अपने फैसले स्वयं लेने का अधिकार बता करके अपनी मर्यादा , संस्कृति एवं संस्कारों के विपरीत कृत्य करती हुई देखी जा रही हैं | जिस प्रकार बरसात में उच्छृंखल होकर मानव जाति से पूजित नदियां अपनी मर्यादा तोड़कर विनाश का कारक बनती हैं और मनुष्यों के द्वारा असम्मान एवं उपेक्षा प्राप्त करती हैं उसी प्रकार यदि पुत्रियाँ भी उच्छृंखल होकर अपनी मर्यादा का उल्लंघन करती हैं तो परिवार एवं सभ्य समाज से उसे असम्मान एवं उपेक्षा ही प्राप्त होती है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" विचार करता हूँ तो इन सबका सारा दोष पाश्चात्य संस्कृति एवं अपने ही देश में फल - फूल रहे सिनेमा जगत के साथ - साथ माता - पिता को भी मानता हूँ | पुत्री की प्रत्येक मांग को मानने वाले माता - पिता को उसके प्रभाव एवं कुप्रभाव पर भी ध्यान अवश्य देना चाहिए | पिता एवं माता अपनी सन्तान के चौकीदार होते हैं उन्हें प्रतिपल अपनी सन्तान की गतिविधियों पर सूक्ष्म दृष्टि रखते हुए समय समय पर उनके साथ बैठकर सम्वाद भी करना चाहिए | आज इस परिवेश में यही कमी है कि माता - पिता ने सन्तानों के अधिकार को असीमित तो कर ही दिया है साथ ही उनके प्रति उदासीन भी होते जा रहे हैं , जिसका परिणाम आज मर्यादा के पतन के रूप देखने को मिल रहा है | यदि पिता उपनी पुत्री की प्रत्येक मांग उसके स्नेह में पूरी करता है तो पुत्रियों को भी अपने पिता के मान - सम्मान के प्रति संवेदनशील रहना चाहिए जिससे कि पिता को जीते जी मृतर समान जीवन न जीना पड़े |* *आज समाज संक्रमण काल में हैं हमारी संतान एवं उनके विचार भी संक्रमित हो रहे हैं अत: एक सजग प्रहरी की तरह उन्हें अपने सम्वाद , विचार , मर्यादा आदि का भान कराकर सजग करते रहना ही इस रोग का उपचार हो सकता है |*