*इस असार संसार का वर्णन महापुरुषों , लेखकों एवं कवियों ने अपनी दिव्य लेखनी से दिव्यात्मक भाव देकर किया है | इन महान आत्माओं की रचनाओं में भिन्नता एवं विरोधाभास भी देखने को मिलता है | यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो अनेक विरोधों के बाद भी इस असार संसार का सार लगभग सबने एक ही बताया है वह है :- प्रेम | किसी ने लिखा :- "है प्रेम जगत में सार , और कुछ सार नहीं है" तो किसी ने यह भी लिखा कि :- "ईश्वर प्रेम बिना नहिं मिलता , चाहे कर लो कोटि उपाय" | कबीरदास जी तो संसार के सभी विद्वानों की विद्वता पर लिखते हैं :-- "पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ , पंडित भया न कोय ! ढाई आखर प्रेम का , पढै सो पंडित होय !! यह ढाई अक्षर का शब्द "प्रेम" अपने आप में अनेक अर्थ समेटे हुए है | मानव जीवन के लिए अनिवार्य इस शब्द (प्रेम) का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस छोटे शब्द की सत्ता एवं महिमा का बखान अनेकों कवियों ने अपनी
कविता में , गीत कारों ने अपने गीत या संत महात्माओं ने अपने प्रवचन विस्तृत रूप से किया है | यह अकाट्य सत्य है कि जब तक इस धरा धाम पर मानव रहेगा तब तक प्रेम का अस्तित्व बना रहेगा | जीवन के किसी भी क्षण , किसी भी स्तर पर प्रेम की आवश्यकता एवं उसके महत्व को नकारा नहीं जा सकता है | प्रेम स्वत: प्रकट होने वाला हृदय का भाव एवं आकर्षण ही कहा गया है | वैसे तो प्रेम की अनेक परिभाषाएं परिभाषित की गई परंतु मुख्य रूप से तीन प्रकार का प्रेम इस संसार में होता है :- १- भावनात्मक प्रेम २- शारीरिक प्रेम एवं ३- दिव्य प्रेम | भावनात्मक प्रेम परिवार एवं मित्रों के बीच में होता है , तो शारीरिक प्रेम को वासनात्मक प्रेम भी कहा गया है , वही दिव्य प्रेम निश्छल प्रेम होता है , जिसमें कोई कामना नहीं होती है | प्रेम की परिणिति त्याग होती है | प्रेम देने के अतिरिक्त लेना कुछ भी नहीं जानता है जहां प्रेम में आदान-प्रदान प्रारंभ हो जाए समझ लेना चाहिए यह प्रेम नहीं वरन् मनुष्य का स्वार्थ है |* *आज के भौतिक युग में जिस प्रकार सब कुछ परिवर्तित हो गया है ठीक उसी प्रकार प्रेम की परिभाषा भी परिवर्तित हो गई है | आज निश्छल प्रेम यदि देखना हो तो वह सिर्फ अपने शिशु के लिए मां के हृदय में देखा जा सकता है , इसके अतिरिक्त स्वार्थ एवं वासनात्मक प्रेम ही अधिक दिखाई पड़ रहा है | आज के युवक-युवती एक - दो मुलाकात में ही एक दूसरे से प्रेम हो जाने का दावा करते हैं | क्या इसे प्रेम कहा जा सकता है ?? शायद नहीं | क्योंकि यहां प्रेम कम और एक दूसरे को पा जाने की चाहत कुछ ज्यादा ही होती है जबकि प्रेम की परिभाषा ही है कि यहां पाने की चाहत नहीं बल्कि त्याग की कामना होती है | मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि आज जिस प्रकार अपने प्रेम को ना प्राप्त कर पाने के कारण अनेक युवक - युवतियां आत्महत्या जैसा पाप कर्म कर बैठते है या अपने माता पिता के निश्छल प्रेम का त्याग करके किसी की आकर्षण में वासनात्मक प्रेम की प्रधानता के कारण अपने परिवार को छोड़कर निकल जाते हैं , उसे प्रेम मानना या कहना महज मूर्खता ही है | आज का प्रेम मात्र शारीरिक आकर्षण एवं धन लोलुपता के वशीभूत होकरके स्वार्थवश किया जा रहा है , इसे प्रेम की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता , क्योंकि सच्चा प्रेम कभी भी किसी को कष्ट नहीं देता और ना ही किसी के तथाकथित प्रेम में अपने घर का त्याग ही करता है | आज यदि इस प्रकार के प्रेम प्रसंग की घटनाएं बढ़ी हैं तो उसमें सिनेमा जगत का महत्वपूर्ण योगदान है इसे नकारा नहीं जा सकता है |* *प्रेम जैसे पवित्र शब्द को आज अपवित्र किया जा रहा है , ऐसा करने वाले क्षणिक आनन्द की अनुभूति तो कर सकते हैं परंतु जीवन में कभी भी अधिक समय तक किसी का भी प्रेम प्राप्त नहीं कर सकते |*