★मेरा धन भक्ति- तेरा धन रोकड़★
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तेरा दर लागे मुझको प्यारा,
तेरा जग है न्यारा।
सोना लागे खोटा मुझे,
हरपल तुझे हीं निहारा।।
गगनचुम्बी इमारतें भले हीं तुम उठवालो।
कितना भी तुम अपना साम्राज्य बढ़ालो।।
गरीबों को चूस तहखानों को भरवालो।
चार हीं कंधे तेरे साथ- साथ रे चलेंगे।।
पाप छुपाने खातिर धर्मशाला बनालो।
टैक्स बचाने के लिए कुँए खुदवालो।।
पास-पड़ोस में दहशत तुम सदा फैलाते।
कोई अच्छा बोले तो दबंगई हो दिखाते।।
अपने गुर्गों से आएदिन गाली तुम सुनते।
अतिक्रमण कर नप की नोटिस पचवाते।।
एम्पायर खड़ा कर- फूले नहीं तुम समाते।
धाटे में हाय-हाय कर बिस्तर पे चिल्लाते।।
बाँस के टुकड़ों में अंट कर सो तुम जाते।
पिण्ड दान का कह बेटे को हीं तुम जाते।।
जिन्दे थे तब बेटों से सर हीं फुड़वाया।
मरने पर कपाल क्रिया तक करवाया।।
पितृ लोक में नहीं जा तुम जा पाते।
अटारिका के उपर भूत बन मँडराते।।
पैसा लूटा तुमने अपने सहोदर का।
दिखाया सबको महल सपनों का।।
जिंदगी भर तकियों में पैसों को रखा।
पलंग-गलीचों के नीचे जमा के रखा।।
सपना पैसों का हीं सदा तुमने देखा।
मरते-मरते भी पैसा हीं तुमने देखा।।
पैसों से एक ताबूत सुन्दर बनवाई।
फिर सोये खुदवा कर गहरी खाई।।
अपने को 'समाजसेवीश्रेष्ट' तुमने बतलाया।
भगुआ झंडा छत पर तुमने लगा धमकाया।।
खाली कटोरा हाथों में थाम
सहोटा बहुत तुमने।
पार्नरों को जोड़- तोड़
खा पचाया बहुत तुमने।।
सब्ज बाग दिखा भोलों को मूर्ख रे बनाया।
कानून अपनी गद्दी से चिपका के बैठाया।।
ओहदेदारों से चट्टा-बट्टा बहुत तुमने बढ़ाया।
दीन कमजोरों को रे बहुत हीं सता रुलाया।।
रोटी नहीं मयस्सर सबकी हाय रे खाया।
थू-थू करवा कर भी चेत नहीं तूं पाया।।
अपनों हीं की अस्मत नीलाम करवाया।
शर्मोहया सारी नीट हीं तुमने गटकाया।।
श्राप प्रताड़ितों का तुझे खा चबाएगा।
उम्र के पहले हीं सड़कर मर जाएगा।।
ब्लैक होल अपने को तुम कहते हो।
शहर का अमीर अपने को कहते हो।।
सारी सेखी धरी की धरी की धरी रह जाएँगी।
दौलत तेरी है मगर तेरे काम न कभी आयेगी।।
ब्राह्मणी से गंदा- मैला तुमने मंजवा- फेंकवाया।
उसका तुमने नमक भी था कभी भरपेट खाया।।
जिस पड़ोसी ने तुमको सहारा दे प्यार से कभी पुचकारा।
पसिने का पैसा सेयर में डुबाया- सत्यानाश हो तुम्हारा।।
घर के दरवाजे के आगे बेबात
चट्टान बनवा आवाजाही तक को रोका।
माँ के दूध का कर्ज भी तुमने
न चुकाया- कभी रोटी खा बोल टोका।।
जिंदे भाइयों को मार हिस्सा सारा तुमने खाया।
एक नहीं सात-सात अवैध्य दरवाजे तूं बनवाया।।
मुस्टण्डों से उलटा-पुलटा जब - तब बहुत करवाया।
अंत समय आयेगा, राम-राम तुम भजलो- सुझाया।।
दूहन किया बहुत अब तो रे पापी संभलो।
समय अभी है चत प्रभु को गले लगालो।।
तेरा दर लागे मुझको प्यारा- तेरा जग है न्यारा।
सोना लागे खोटा मुझे- हरपल तुझेहीं निहारा।।
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डॉ. कवि कुमार निर्मल________✍️
DrKavi Kumar Nirmal
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विधा: कविता 【भक्ति रस सृजन】
शीर्षक: "तेरा एक सहारा"
जगदंबे मां तेरा दर मुझे लागे प्यारा।
दौड़ी चली आऊँ हो तेरा गर इशारा।।
मन तड़पें बिन तेरे- बस तेरा है एक सहारा।
बुला भक्त को- तेरे लिए छोड़ू जग सारा।।
दुनिया में मिला धोखा- प्रपंचो से मन हारा।
कृपादृष्टि कर दु:खितों को तुमने है तारा।।
अष्टपाश एवम् सट्ऋपुओं का मैं हूँ मारा।
पुकार रहा है तुझको यह भक्त एक प्यारा।।
माला नहीं पुष्पों की- सब कुछ तुम पर वारा।
तुम बिन दूजा मां नहीं कोई और मेरा सहारा।।
मन मंदिर में बैठाऊँ- तेरा दर मुझे लागे प्यारा।
दौड़ी चली आऊँ मैं- हो बस तेरा एक इशारा।।
पुष्पा निर्मल_________✍️
(भार्या)
Pushpa Nirmal
हमारा बेतिया
Bettiah West Champaran
Bihar Sach