अंक 02 मेरी यादों के झरोंखों से ___________________________________ अक्सर ग्रामींन आचंल में पलने बाले युवक युवतियों के हृदय में निश्च्छल परमात्मा के स्वरूप प्रेम के शुद्ध चैतन्य दर्शन अक्सर ही आपको देखनें को मिल जाया करते हैं।
प्रेम भी तो एक परमात्मा का अद्वतीय स्वरूप है। कहते है प्रेम में ईश्वर का वास होता है, विद्वान और मनिषियों का मत है कि, प्रेम जहाँ है वहाँ भगवान स्वयं निवास करते हैं,और यह कहांनी भी इसी प्रेंम के रहष्य के अनसुलझे इस अभिशाप या वरदान का ही प्रतिपादन करती है।
इस ग्रामीण अञ्चल के कालिज में पढ़ने आने वाले किसोर किशोरियों की उम्र भी अक्सर उसी अबस्था के समकक्ष होती है,जो अक्सर अपने भविष्य को लेकर उस समय कुछ सार्थक निर्णय नहीं कर पातें हैं ,बस उनका तो नित्य नये नये सपनों को देखना और उनकों अपनीं पलकों पर सजा कर कालिज में प्रवेश करना ही तो है,।
इन्हीं रँगविरंगें सपनों के साथ ही उन टीनएजर्स किसोर-किशोरियों के अभिभावक भी उन्हें लेकर भविष्य के अपनें बड़े बड़े सपने अक़्सर देखा करते है, इसमें उन अभिभावकों का कोई दोष नहीं, अरे भाई जब हमारें बच्चें हैं तो वह हमारा बीता हुआ वचपन का भविष्य ही तो हैं जो हमसे वहुत पहिले छूट गया था, इसलिए हम अपनें बच्चों में अपना भविष्य प्रायः सभी देखा करतें है।और इसलिय ही
हम सब अपनें भविष्य को लेकर कुछ बढ़िया जो हम अबतक नहीं कर सके थे बस अपनें बच्चों में यह सोंचकर उम्मीदवार होतें हैं कि हमनें अब तक जो ना कर सकें थे उसकी पूर्ती अपनें उस बाल टीनएजर्स रूप में सपनें पूरे करतें देखना हर एक माँ और पिता का सबसे पहला और सुन्दर सपना होता है।
" किन्तु यह किसोर अबस्था है ही एक ऐसी जज्बाती।
",कहते हैं की इस अबस्था में तूफ़ान ही तूफ़ान अधिक आतें हैं आख़िर क्यों होता है ऐसा ?
इसका कारण कभी कोई युवा कभी ढूँढता ही नहीं ,आख़िर क्यों नहीं दूँढ़तें यह टीनएजर्स आयु के यह किसोर-किशोरियां ?
इस भयानक कारण को ?,
आओ हम सब मिलकर इस कारण को ढूंढें? , बरना पूरी जिंदगी रोना और पश्चाताप के अलाबा और कुछ शेष नही दिखाई देता है ।
क्या है इस समस्या का समाधान ?
तो मित्रों बात बस छोटी है पर समझ से परे है, क्यों कि हर कोई युवा इस आयु में अपनें मन जिसे हम हृदय भी कहतें हैं की ही सुनता है , ना कि अपनें मस्तिष्क में निवास करनें बाली चतुर-वुद्धि की,।
अगर वुद्धि से काम लिया जाए तो फ़िर इन समस्याओं का जीवन में आनें का कभी कोई औचित्य ही शायद नहीं होगा।
पर मित्रों ऐसा इस टीनएजर्स में तो शायद ही कदाचित सम्भव हो सकता हो ?
नहीं .....नहीं....कभी भी नहीं, क्योंकि टीनएजर्स वुद्धि पूरी तरह परिपक्व नहीं होती। इस आयु में तो
हर कोई युवादिल की यह आबाज़ होगी जो असँख्य तूफानों को चीरकर धरती आसमान को भी विवश कर देती है वह सब सोचनें को जो उसनें उन प्रेंम की कोमल भावनाओं को लेकर ढेंरों सपनें सजाएं हुए थे, पर वह आख़िर वास्तविकता के कठोर धरातल पर टकराकर किसी दर्पण की भाँति टूट कर बिना आवाज़ के विखर जातें हैं और फिर आसमां चुपचुप आँसुओं को लुटाता है ,उस अपनी अनन्त काल से रही उसकी चिर संगिनी प्रेंमिका वसुंधरा पर।
जो प्रातः वेला में ओंस कण बनकर पूरी वसुंधरा पर सूर्य के पीले तेज से गौरवान्वित हो चमक उठतें हैं, वह आसमान के आँसू जिन्हें केबल पृथ्वी ही आकाश के दुःखद अहसास को समझ पाती है ।
इसलिए सभी दार्शनिकों का कहना सही है कि" किसोर अवस्था आँधी और तूफानों की अबस्था है। "
न कोई चिंता न कोई गम बस " सुनों सभी की और करों सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनें मन की " करते जाओ अपने लक्ष की सिद्धि, और फिर ये सिद्धि भी इस बात पर निर्भर रहती है कि हमारी दिशा का गनतब्य लक्ष्य उचित है अथवा अनुचित, और यह सब उस पुरुषार्थी के पौरुष और इष्टमित्रों के ऊपर निर्भर करता है ,इसलिये हे युवाजनों ! मित्रों का चयन भी हम सब को सोच समझ कर करना चाहिये, पर यह सोच इस युवा अल्हड़ मन में कहाँ पहिले से होती है।
बस जैसे तैसे दाखिला मिला और कॉलिज जाना शुरू कर दिया और इसी के साथ जो भी कक्षा का सहपाठी मिला जिस से हमारे विचार मिल गए बस वह हमारा पक्का मित्र बन गया, अब जो लक्षण हमारे उस मित्र में होंगें वही सब के सब लक्षण हम में धीरे धीरे से आ ही जाते है,इसी के साथ कोई भी कार्य करने की लगन जो बिना लाभ हानि देखे स्वतः हमारें अंदर आ जाती है।
इसलिए हर-एक अभिभावक का परम कर्तब्य है कि वह अपने किसोर आयु के बच्चों का स्वयं ध्यान रखें और उनके कार्यों का आँकलन समय समय पर आपस में पति पत्नी करें ताकि उनका बालक बालिका अपने पथ से भटकनें ना पाएं , और अगर समय समय पर आपने बच्चों के क्रिया कलापों को स्वयं नहीं आंकलन नहीं किया तो फ़िर पश्चाताप करनें का कोई औचित्य ही नहीं बनता,
किन्तु दुर्भाग्यपूर्ण तो यह बात है कि "आज के इस मनीमाइन्ड युग में कहां किसके पास इतना समय है जो यह सब करे , पश्चाताप तो जब होता है जब समय निकल जाता है।"
यह सब बातें किशोर की माताजी के दिमांक में अक्सर कौंधती रहती थी, वह चाहती थीं कि उनका किशोर पड़ लिख कर एक होंन्हार युवक बानें, वह उसे बनाना भी वही चाहतीं थीं।
किशोर के पिता अपनी नौकरी के कारण घर पर रहते नहीं थे, अतः सारी जिम्मेदारी घर से लेकर बच्चों के पढ़ाने लिखाने का उत्तरदायित्व सिर्फ़ उसकी माँ का ही था।
किशोर के दादाजी ने सिर्फ किशोर का दाखिला भर कॉलिज में करा दिया था और तब से उन्हें कभी समय नहीं मिला कि वह किशोर को कभी कॉलिज जाकर उसकी गतिविधियों को देखें या पता कर उसकी माँ को उसके बारे में कुछ कहें।
किशोर का एक मित्र भी इसी कालिज में उसी के साथ पड़ने जाता था, अक्सर किशोर की उस से वहुत पट ती थी, या यह कहना अनुचित नहीं था कि किशोर और भाष्कर का दोनों का साथ चोलीदामन के समान था दोनों की गाड़ी एक ही पटरी पर अक़्सर दौड़ती दिखती थी।
शेषांक अगले अंक 03 में।
Written by h.k.bharadawaj