अनुच्छेद 75 मेरी यादों के झरोखों से ----------------------------------------------------------------------------------------- मधु की जिद के आगे परिवार के सभी सदस्यों को झुकना पड़ा,सेठ जी ने भी अब उसके पुनर्विवाह हेतु लड़का देखने की चिंता उन्हें अब प्रत्यक्ष नही थी,।
किन्तु जब भी वह अकेले होते तो अपने आपसे प्रश्न करते मेरे बाद मधु की कौन देख भाल करेगा? ,आदि आदि प्रश्न उनका स्वयं मन करता था।,
इस तरह वक्त बीतता जा रहा था मधु अपने को कभी अकेला नही रखती थी क्यो की अकेले पन में वही यादें न चाहते हुए भी दिल के रास्ते बह मनमीत मन का चोर चुपके से मन में बरवस घुस आता था।,
जब जब मधु ने उसे भुलाना चाहा वह उसे और अधिक याद आता ,अतः मधु ने अपने को इतना ब्यस्त कर लिया था कि हर काम वह स्वयं करती घर में जो और काम बाली महिलाएं थी, फिर भी वह अपने सभी कार्य स्वयं करती।
एक वार उसकी दोनों भावीओं ने घर में अक्षय तृतीया के त्योहार को मनाया ,इस कार्यक्रम में और भी सभी महिलाएं आस पास की वहाँ आकर शामिल हो तैयारियां कर रहीं थी।
अचानक मधु का जी वहलाने हेतु इंद्रा उसे अपने साथ लेकर बट पूजा को गई ,।
कौशल पुर गाँव से कुछ दूर बट का बृक्ष एक मंदिर के प्रांगण में था अतः सभी महिलाए एकित्रत हो कर उस मंदिर पर पहुंची,उस मंदिर पर एक महात्मा जी भी निवास करते थे वह अक्सर मौन रहते थे अतः वहाँ आने जाने बालो से कभी कभा जब उनका मन होता था तो स्वयं बात करते थे।
मधु की साथी सभी महिलायें बट पूजा करने लगी ,किन्तु मधु सब से अलग एक बृक्ष की छाया में खड़ी हो गई,उसी समय वह महात्मा जी उधर से निकले और मधु को सब से अलग थलग खड़ा देख बोले।
बेटा तुम क्यों अलग हो जाओ तुम भी अपने पति की लंबी आयु हेतु बट पूजा के कार्य में शीघ्र भाग लो।
जी.. जी... महाराज जी... मेरा जीबन.....।
महात्माजी ने हाथ उपर उठा कर उसे चुप रहने का संकेत करते हुए पुनः कहा।
बेटा संसय मत करो तुम्हारा पति जिसे तुम उसे आज तक भुला नही सकी हो वही तुम्हारे लिए एक दिन लेने अबश्य आएगा, जाओ उसकी लम्बी आयु हेतु पूजन कार्य सम्पन्न करो।
एक पल को मधु का पूरा शरीर एक अलग ही ऊर्जा से भर उठा उसके कदम स्वतः अपनी भावी माँ की ओर वड़े, उसने अपनी भावी मां के कान में वह सब बता दिया जो कि महाराज जी ने उससे कहा था।
इंद्रा ने उसे प्यार से समझाया,
बेटी वह महात्मा जी उच्च कोटि के महापुरुष है उनकी कही हुई कोई बात मिथ्या नही होती,अब इसी में भलाई है कि तुम मेरे साथ बट बृक्ष की पूजा करो।
जी भाबी माँ।
और फिर वह अपनी भाभी माँ के साथ पूजा में संलग्न होकर उस वट पूजा में शामिल हो चुकी थी।,
पूजा सम्पन्न होने के बाद सभी महिलाएं अपने अपने घर आगई,।
मधु आज वहुत खुश थी उसके चेहरे की चमक से सभी परिजन सन्तुष्ट थे ,केबल एक उसकी छोटी भाबी जो की प्रेम की दुल्हन थी वह बस सन्तुष्ट नहीं दिखी इसीलिये वह इस उधेड़ बुन में लगी थी कि उसकी खुशी का क्या रहस्य है , उसकी ननद जी आज वहुत खुश है, अतः वह इसी उधेड़ बुन में वह अपने कमरे में इधर से उधर ,उधर से इधर चक्कर लगातार लगा रही थी,।
अचानक प्रेम ने उसकी यह दोलन गति देखी तो वह हौशला कर उस से पूछ ही बैठा।
डार्लिंग, क्या बात है जो आज तुम घड़ी के पेंडुलम की तरह इधर से उधर घूम रही हो।
तो आपको इससे क्या,आप तो आँखों पर पट्टी बाँध लो।
वह झुंझलाई सी बोली।
अरे यार मै वहुत देर से देख रहा हूँ कि तुम इस कमरे में चकरघिन्नी की तरह नाच रही हो।
तो तुम्हे क्या लेना देना, वस तुम तो जिंदगी के मजा लूटो।
अरे मेरी रानी तुझ को किसने रोका है जिंदगी के मजे लेने से।
प्रेम हंसते हुए बोला।
ठीक कहते हो,अरे तुमने कभी मेरा ख्याल किया कि मैं कैसी जिन्दगी जी रही हूँ।
क्यो तुम से क्या यहां पहाड़ तुड़बाये जा रहे है।
अगर ऐसी बात है तो कभी देखा अपनी बीबी को ,पूरे दिन बन्दरिया की तरह काम में लगी रहती हूं।
अनुराधा प्रेंम को उलाहना देती हुई बोली।
अच्छा ,एक तुम्ही हो, काम में लगी रहने बाली ,बाकी सब घरेलू नौकरानी तो बैठी रहती है,और भाबी माँ, मधु वह दोनों तो वस आराम करती ही रहती है।
प्रेम उसका मजाक बनाता हुआ बोला।
हाँ, यह कही असल बात, अगर मैं कह दूं तो तुम्हें और तुम्हारी बहिन को अभी मिर्ची लग जायेगी।
अरे कुछ बताएगी या यूं ही पहेली बुझाएगी।
प्रेम तेज स्वर में बोला।
मैं क्या बताऊँ अपनी आँखों से अपने वहिंन की करतूत देखो खुद।
अरे क्या हुआ उसे ,साली, तू हमेशा उनसे जलती है।
हाँ यहीं तो कहोगे ,जब नाक कट जाएगी न तो बाद में मत पछताना ,पहले ही बोले दे रही हूँ।
अपनी पत्नी की बात सुन प्रेम कुछ गम्भीर हो गया था।
अतः कुछ देर खामोश निगाहों से वह उसे घूरने के बाद बोला ,।
देख,तू दीदी के बारे में अनाप सनाप मत बोला कर।प्रेम उसे समझाने की मुद्रा में बोला।
मैं कौन हूँ जो उन्हें रोकूँ,अपने आप जब पूरे गाँव मे बात फैल जाएगी तब सुन लेना।
वह हाथ नचाती हुई बोली।
अगर तूने कुछ देखा है तो बता ना।
प्रेम धीमें से राज भरें अंदाज में फुसफुसाया।
मैं क्या बोलूँ तुम खुद सुवह सात वजे और सांझ को दिन छुपे देख लेना, कि वह एक दुल्हन की तरह सजधज कर अकेली कहाँ और क्या करने जाती है।
तू फिर उसे बदनाम कर रही है।
प्रेम संसय भरे लहजे में कठोर स्वर में बोला।
तुम मेरी बात का बिश्वाश मत करो, परन्तु इतना जरूर देख लो की तुम्हारी वहिंन सुबह और सांझ श्रंगार कर कहाँ जाती है।
प्रेम अपनी पत्नी के तर्क से निरुत्तर हो चुका था,अतः संसय रुपि विहग मन मे सिर एक बार फिर उठाने लगा,वह अपने मन मे तर्क वितर्क करने लगा।
कहते है कि इंसान के जीवन मे मन से पाप प्रकट होता है तो वह सर्ब पृथम उसकी शुद्ध बुदि को नष्ट कर देता है। और इस तरह उस पर धीमे धीमे उसके मन मस्तिष्क पर कब्जा कर उसे विपत्तियों में डाल देता है , ।
जिस के कारण आपस मे कलह अविश्वास का जन्म होता है।
और यही हाल था प्रेम का वह हर समय मधु पर नजर अब चुप चाप रखने लगा था। वह उसके पहिनाव उड़ाव में परिवर्तन के साथ साथ हर समय मधु का खुश रहना उसके अब शक का एक वड़ा कारण बन चुका था।,
अतः वह मधु से पूछने के बजाए उसकी हर क्रिया कलाप को अपने मन में रखे मन सा पाप से ग्रासित होकर उसके हर कार्य को जोड़ ने पर हर साधारण से साधारण में भी उसे वहुत बड़ा दोष दिखाई देता,।
किन्तु उसने मधु के जीवन की सच्चाई को कभी भी नज़दीक से परखने की कोशिश नहीं की।
अतः एक दिन जब मधु मंदिर जा रही थी तो उसने अपना मन कड़ा कर उस से पूँछा।
कहाँ जा रही हो।
जी भैया पूजा करने।
मधु ने सरलता से कहा।
क्यों करती हो रोज पूजा।
अपने पति की लंबी आयु के लिये।
पर तुम्हारा तो तलाक हो चुका है।
भैया, आज तुम कैसे बहकी वहकी बात कर रहे हो।
मैं ठीक कह रहा हुँ,तुम रोज अकेली पूजा करने जाती हो, यह तुम्हारा बहाना अब नहीं चलेगा,जाओ अंदर घर जाओ।
मधु हक्की बक्की सी प्रेम को देखे जा रही थी और प्रेम अपना मुहँ मोड़ कर दूसरी ओर देख रहा था।
वह कुछ देर वही खड़ी रही और फिर अंदर अपनी भाभी माँ के निकट चली गयी, प्रेम की इस हरकत को सेठ जी खामोश खड़े देख रहे थे,मधु के वहाँ से जाने के बाद वह प्रेम से बोले।
प्रेम ,आज का तुम्हारा मधु के प्रति किया गया व्यबहार उचित नहीं है।
सेठ जी गम्भीर स्वर में बोले।
पिताजी, अब आप बृद्ध हो चुके है,आपको तो कुछ समझ नहीं आता,पर हम अपनी आँखे हर पल खुली रखते है।
तुम कहना क्या चाहते हो।
मैं जो कहना चाहता हूँ वह आप समझ नहीं पाएंगे।
तो अब हम तुम्हारे हिसाब से चलेंगे।
सेठजी के क्रोध का ठिकाना नही रहा गुस्सा की अधिकता में वह कांपने लगे।
नालायक़, दूर हो जा मेरी नजरों से।
वह क्रोधावेश में चिल्लाये।
आप का सीमा से अधिक छूट देना ,एक मूक सहमति देना है,अगर यही आपकी इच्छा है तो हम को आपकी जरूरत नही है।
प्रेंम प्रकाश सेठ जी से अकड़ कर बोला।
सेठ जी गुस्सा की अधिकता में अपना घर छोड़ कर वाहर निकल गये जाते जाते वह प्रेम से बोले।
अरे नमक हराम,अच्छा हुआ जो तेरी माँ तुझे जन्म देकर तेरे इस कुकृत्य देखने को आज जीवित नहीं है।
सेठजी गुस्सा से कांप उठे थे।
तो आप भी क्यों यहाँ खड़े हो, आप भी माँ के पास चले जाओ ,......वहाँ जहाँ माँ गई।
प्रेम ने पलट कर क्रोधित हो कर जबाब दिया।
कहते है,जिसको क्रोध आता है वह तो है ही उस समय विबेक हीन, अतः दूसरे को अपने विवेक से काम लेना उचित है ,क्रोधित व्यक्ति क्या बोला, सही बोला,उस समय कुछ भी याद नहीं रहता उसे अतः प्रेम के शब्द सेठजी के ह्रदय को बेधते निकल गये थे।
इसलियें हमारे बड़ों ने हमें शिक्षा दी है कि कभी क्रोध मत करो ,और क्रोध में लिया निर्णय कभी उचित नही होता।
किन्तु तीर कमान से निकल कर और बात जुबान से निकलकर कभी शब्द और वाण पुनः वापिस नहीं आते,।
सेठ जी घर छोड़ कर जा चुके थे प्रेम ने उन्हें रोकने का प्रयास भर भी न किया।
साँझ ढल चुकी थी अंधेरा अपना स्थान ले रहा था
सेठ जी के चले जाने पर पूरी हबेली सन्नाटे में छा चुकी थी यत्र तत्र मधु की सिसकियाँ वहाँ गूजने लगती थी ।
इंद्रा और इंद्रप्रकाश एक शादी समारोह में भाग लेने दो दिन पहिले ही कोठी से निकल गये थे,अतः पूरी हबेली मानो सूंनसान सी मधु और सेठजी के अपमान पर खामोशी से आँसू वहा रही हो।
उस रात मधु सो नहीं सकी थी ,रह रह कर उसे उन मंदिर वाले महाराज जी के वचन याद आ रहे थे।
बेटा तुम्हारा जीवन इस समय बड़े संकट में है जाओ अपने इष्ट की शरण मे बैठ कर संकटों को गुजरने की प्रतीक्षा करो।
अतः मधु उठी और अपना हाथ मुहँ धो कर माँ दुर्गा का ध्यान में तल्लीन हो चुकी थी।.....
.शेष अगले अंक में पढ़े।
Written by H.K.Joshi. P. T. O.