अनुच्छेद 06 मेरी यादों के झरोखों से
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आज कालिज में पन्द्रह अगस्त का समारोह मनाया जा रहा था सभी छात्र छात्राएं विद्यालय प्रांगण में एकित्रत होचुके थे और मुख्य अतिथि दीप प्रज्वलित कर कार्यक्रम को शुरू कर चुके थे ,सांस्कृतिक कार्यक्रम को संचालित करते हुये भारद्वाज जी ने कार्यक्रम में भाग लेने बाले पात्रों के लिये प्रस्तुति देने को पुकारना आरम्भ किया और फिर सभी कार्यक्रम में भाग लेने बाले छात्र अपनी अपनी प्रस्तुतियाँ देने लगे बीच बीच में कभी कभी कालेज के विद्वान प्रवक्ता अपने अपने प्रिय विषय पर भी अपने अपने विचार प्रस्तुत करते रहे,किशोर भी कार्यक्रम का पात्र था उसने अपने भाषण का विषय रखा,
"विद्यार्थी जीवन से जुड़े समस्यात्मक प्रश्न "।
किशोर ने अपनें विचार प्रस्तुत किये उसके ह्रदय के भावों को सुन उसके सभी अध्यापकों ने उसकी मुक्त कंठ से सराहना की उसके सभी साथियों ने करतल ध्वनि से उसका स्वागत किया, अचानक उसकी दृष्टि उसी स्वप्न सुंदरी पर जा टिकी वह किशोर को बिना पलक झपकाए किसी मंत्र मुग्धा की भाँति देखे जा रही थी , किशोर की नजर उसकी नजरों से मिलते ही वह सीधी हो कर अपनी सहेली रमा की ओर मुखातिब हुई ,मानों वह चाहती हो कि उसके मूँक प्रेम को कोई देख ना रहा हो।
किशोर ने अपनी नजर उस से हटाकर दूसरी ओर देखा पूरा हाल उसके लिये सम्मान से देख रहा था।वह अपने भाषण को समाप्त कर स्टेज से नीचे आया तो उसके सहयोगियों ने उसे वधाइयाँ देनी शुरू की, उसके सभी मित्र उसके निकट आकर उस से हाथ मिला रहे थे, किन्तु वह जिसको अपने नजदीक देखना चाह रहा था वह एक कोने में सब से अलग थलग किसी गहन विचारों में खोई हुई थी।
काँग्रेचुलेशन मिस्टर , आप ने वहुत अच्छी अपने विचारों की प्रस्तुति की।
एक लड़की ने उसे बोला।
किशोर ने उसके सम्मुख अपने दोनों हाथ जोड़ कर कहा।
धन्यवाद वहन जी।
और फिर किशोर अपने मित्र भाष्कर की तलाश में कार्याक्रम स्थल से निकल कर कालिज की क्यारियों की ओर बड़ा ,जहाँ वह अक्सर खाली पीरियड बैठकर विताते थे ,पर वहां भी उसका मित्र भाष्कर उसे नहीं मिला ,तो वह पीछे की ओर मुड़ा और अचानक उसकी नजर उस स्वप्न सुंदरी पर पड़ी वह उसके पीछे पीछे कुछ फांसले से किशोर के पीछेंआ रही थी,एक दम अकेली।
आssssप।
अचानक किशोर के मुख से निकला।
अचानक किशोर को अपनी ओर घूरते देख वह नीचे सिर झुका कर जमीन को अपने पैरों के नख से जमीन की मिट्टी कुरेदने लगी थी।
ना कोई शब्द पुनः किशोर के मुहँ से निकला और न ही वह स्वप्न सुंदरी कुछ कह पा रही थी किशोर से, दोनों ही अपनी अपनी जगह पर शांत एक दूसरे को देख रहे थे , मानों वह एक लम्बे समय से विछुड़ कर अब और यहीं मिलें हों, कैसा था उनका यह मधुर मिलन दोनों में से कोई भी इस रहष्य को नहीं समझ सका ।
कहतें हैं जब दो आत्माओं का मिलन जब जब होता है तो समय भी अपनी गति को रोक कर उनका वह संगम निहारता है,प्रकृति के सारे कार्य स्थगत हो जातें हैं और विधाता की सारी सृष्टि प्रेंम मय होकर दिव्यानन्द की अनुभूति से तृप्ति पा जाती है, पर यह प्रेंम-पिपासा कभी शान्त नहीं होती, यह तो एक बार प्रेंमानन्द का रस जिस ने चखा, बस वह उसके दिव्यानन्द का पान करनें का पुनः अभिलाषी होंगया, क्या पीर, फकीर,योगी,भोगी से लेकर सारी दुनियाँ उस प्रेंमानन्द की दीवानी हो गई,इसलिए तो कहतें हैं "Love is God"
" इश्क़ इबादत है "
" प्रेंम परमात्मा है "
अनेक रूप है प्रेंम और परमात्मा के।
अचानक उस स्वप्न सुंदरी की सहेली रमा उसे कॉलिज से ढूंढती हुई गुलाबी रंग के गुलाबों के फूलों की क्यारी के नज़दीक आयी ,और किशोर और अपनीं सहेली दोनों को एक दूसरें में खोए हुए देखा।
अरे तू यहाँ खड़ी है , मैंने तुझे कार्यक्रम स्थल से लेकर कैन्टीन तक हर जगह ढूंढ़ लिया पर तू यहाँ .....चुप चुप....क्यों........।
वह बोलते बोलते एकाएक किशोर को वहाँ देखकर चुप हो गई।
आओ घर चले।
उस सुंदरी ने किशोर की ओर देखते हुए अपनी सहेली रमा से कहा।
रमा कभी अपनी सहेली को देखती तो कभी विषमय से मुहँ खोलें किशोर को, मानों उसनें कोई नया अजूबा देख लिया हो।
पता नहीं वह कितनीं देर और इस स्थिति में मुहँ खोलें देखती रहती, पर उसकी सहेली उस अनिंद्य सुंदरी ने उसे पुनः पुकारा।
चल अब देर क्यों करती है।
लेकिन रमा के आश्चर्य का कोई ठिकाना नहीं था,वह उस से सब कुछ जान ना चाहती थी, इसतरह तन्मयता से उस किसोर को देखनें का क्या मतलब था। पर उस अनिंद्य सुंदरी नें अपनी सहेली रमा को वह अवसर ही नहीं दिया कि वह उस से कोई प्रश्न पूँछ सके।अतः वह उसका हाथ पकड़कर उसे अपनें साथ ले चली , और रमा आश्चर्य से घिसटती हुई उसके साथ चलनें लगी।
रमा उसके हाथ की पकड़ से अपनें हाथ को आज़ाद करानें की कोशिश करतें हुए बोली।
ऐसी जल्दी क्या है घर चलनें की मेरीं बन्नो।
पहिले जल्दी से निकल यहाँ से,रास्तें में सब कुछ बता दूँगी।
वह षोडषी वाला अपनी सहेली के कोमल कर को खींचती हुई बोली।
वह लड़का कौन है? जो तुझें इस तरह अजीव ढंग से देख रहा था।
रमा नें फिर अपना वही प्रश्न दोहराया,जिसका उत्तर वह अनिंद्य सुन्दरी उसे देना ही नहीं चाहती थी।
इसतरह वह दोनों उस फूलों बाली क्यारी से चलती हुईं वहुत दूर आ गई थीं।
अब बताओ सही सही तू उस लड़के से क्या कह रही थी इस तरह खड़ें होकर।
रमा नें उस अनिंद्य सुंदरी को उस फ़ाउंटेन के निकट बनी एक ख़ाली फ़ील्ड में रोकतें हुए बेसब्री से पूछा।
बताती हूँ....बताती हूँ ....बाबा पहिले श्वांश तो चैन से लेंने दो। वह स्वप्नसुंदरी अपनीं उखड़ी हुईं श्वाशों पर काबू पानें की कोशिशें करती हुई धीरे धीरे बोली।
चल चल जल्दी से बोल ।
रमा उसके मुहँ के सन्मुख चुटकी बजाते हुए बोली।
यार तू बड़ी उताबली हो रहीं है ,आज।
वह अपनें सीनें पर हाथ रखती हुई बोली।
सच बता, वह तुझ से क्या कहता था।
तू पागल तो नहीं तू , अरे वो वस मुझें देख रहें थे और मैं भी उन्हें देख रही थी।
तू मुझें शायद पागल समझ रही है।
रमा रोष में भर कर बोली।
चल हट ,जो पागलपन की बात करता है तो वह पागल ही होसकता है।
कौन कर रहा है पागल पन की बात।
उस अनिंद्य सुंदरी से रमा नें प्रश्नात्मक ढँग से पूछा।
क्या यही तेरी दोस्ती है,।
वह अनुपम सौन्दर्य की स्वामिनी नें रमा को डांट कर चुप कराना चाहा।
ठीक है मत बता,पर तू कब तक छिपायेगी।
रमा तुनक कर उस से बोली।
देख रमा, मैं सच कहतीं हूँ, उन्होनें मुझसे कुछ नहीं कहा।
वह उसे विश्वाश दिलाती हुई बोली।
शेषांश आगे....... ..............।
Written by H.K.Bharadawaj
P.t.o.