अनुच्छेद 70 मेरी यादों के झरोखों से ^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^ "मानव जीवन भी बड़ा विचित्र है"
सुख दुख जीवन के दो आयाम है,
दिन रात,सर्दी गर्मी यही क्रमानुसार, ऋतुओं का आना जाना लगातार काल का क्रम चक्र है।
हम सब उस काल के अभिनेता है , जो काल प्रत्यक्ष है,वह वर्तमान है और जो अपना रौल पूरा कर स्टेज से चला गया ,वह भूत हो गया,और अब किस को स्टेज पर अपना अभिनय करना है,इस सबकी जानकारी कब किसका अभिनय खत्म हो ,और वह इस स्टेज रूपी विश्व मंच से कब हट जाए ।
यह सब उस समय रूपी सूत्रधार (डायरेक्टर)निर्देशक को ही मालूम है, हमे नही ?
जिसे हम इस संसार में विभिन्न धर्मों में विभिन्न नामों से पुकारते है कितना अजीब और रहष्यमय है वह अव्यक्त अगम अगोचर निराकार स्वरुप बाजिगर ?
हम सब तो एक कठपुतली है उसके इस विश्व रुपी रंगमंच के ।
सेठ रविशंकर जी अपनी पुत्री मधु, का पुनर्विवाह करना चाहते थे, वह जव भी कभी मधु को देखते, वही उदास शून्य में किसी को तलाशती उसकी स्वप्निल आँखे और आँखों मे अनगिनत तैरती दर्द की ढेंरों परछाइयाँ जो अपने बीते हुए कल की यादों से मुहँ चुराय छुपाये रहती उसका बराबर पीछा करतीं रहतीं ।
नए सपने देखना तो शायद उसने सदा सदा के लिए छोड़ दिया था।,
मधु की दर्द भरी दांस्तान तो सिर्फ उसकी भाबी मां इन्द्रा ही समझ सकती थी और स्वयं महसूस कर सकती थी,बाकी अन्य परिजन केबल प्रेम की दुल्हन को छोड़ कर सभी उसका ख्याल अपनी अपनी भावनाओं के आधार पर उसके हित की सोचते रहते थे।
फिर भी मधु के प्रियजनों का ह्रदय उस समय मधु को अपनी अनजानी अनन्त पीड़ादायक अबस्था में देखतें।
अनचाहे दर्द से विदीर्ण अपनें मन को लिए वह पुरानीं यादों में,खोई हुई मधु को बैठें बैठें अपनें में गुम हुए देखतें ।
ह्रदय विदीर्ण लिए वह पगली किसी की वाट जोहती स्वयं से बातें करनें लगती । मधु की आंखों में झलकती पुरानीं स्मृतियाँ जो मानस पटल पर कुहासे की भाँति दर्द बन कर पानी के रूप में आँखों के राह पिघलकर अश्रु पानी का रूप लेकर कभी कभी अकेले में निर्झर की भांति स्वत्:अनवरत गिरते दिखाई पड़तें।
सेठ जी अपनीं बेटी के दर्द को जान कर भी उसको रोकने के प्रयास करतें तो भी वह अब तक उन वहतें आँसुओं को रोकनें में कभी भी सफल नही हो पाये थे।
सेठ जी के मन में अनेक संकल्प विकल्प आते जाते,पर क्या करे वह ? यह उन की समझ मे नही आता था।
एक पिता वह अपनी उस परित्यक्ता पुत्री को कैसे किस के सुपुर्द करे ?।
वस यही उधेड़ बुन में उसके पिता सेठ रविशंकर सोचते रहते पर,उस समस्या का समाधान,ना कोई रास्ता अथवा उसका कोई छोर भी उन्हें दिखाई न देता।
एक दिन सेठजी जब खाना खाने लंच टाइम में आये तो वह कुछ गुम सुम से दिखाई दे रहे थे ,लंच टेविल के निकट चेयर पर परिवार के तीनों पुरुष इस समय अपनी अपनी चेयर पर बैठे थे। और मधु को छोड शेष महिला सदस्य पुरषों के खाना खाने के बाद ही भोजन करती थी, ऐसा सेठजी के घर की परंपरा थी, जो वर्षों पहले से चली आ रही थी,पहले पुरुषों को वह खाना खिलाने के बाद फिर जो बधू घर मे छोटी होती वह अपने से वडी महिलाओं को भोजन कराने के बाद अन्त में स्वयं भोजन करती थी।
अतः इंद्रा और मधु दोनो भोजन सर्व कर रही थी।प्रेम की दुल्हन उनकी व्यबस्था में लगी हुई थी।
,सेठ जी का चेहरा आज कुछ सुस्त दिखाई देता था,अतः मधु उनके चेहरे को पहली नजर में ही समझ चुकी थी की उसके पिता आज कुछ परेशान है,वह देखती रहीअपने पिता को केबल भोजन की थाली के नजदीक जिसमें से उन्होने एक कौर भी मुहँ में नहीं डाला था।
जब अंत मे उस से रहा नही गया तो उसने उनसे पूछ ही लिया।
क्या बात है ,पिताजी आज आप कुछ परेशान से कुछ उदास दिखाई देते है,।
मधु ने अपने पिताजी से कहा।
कुछ नही बेटी, मन आज दुखी है।
सेठ जी ने एक लम्बी स्वास लेते हुये सरलता से उत्तर देने का प्रयास किया।
पिताजी अगर आपकी तवियत ठीक नही, तो आप घर मे विश्राम करले,मैं आज शेष कार्य देख लूंगा।
प्रेम सेठ जी का जो छोटा पुत्र था सहानुभूति से बोला।
नही बेटा ,तुम जानते ही हो ,मेरा घर पर मन नही लगता ,वस एक बात सोच कर मन आज दुखी है,की मेने अपने मित्र के बेटे को मधु की शादी का प्रस्ताव भेजा था किंतु उसके बेटे ने यह कह कर उसे निरस्त कर दिया की मेरी लड़की परित्यक्ता है।
ओह ,पिताजी एक बार भी तो आप मेरी शादी कर के देख चुके है,क्या मिला मुझे वहाँ सिर्फ दुख दर्द और प्रताड़ना के सिबा,अगर बड़े भैया भाबी समय पर न पहूँचते तो आज जो मधु आपके सामने जीवित हूँ वह आज नही होती।
वह अपनी रुलाई को मुश्किल से रोकने का प्रयास करती हुई बोली।
पिताजी ,मुझे वहुत दुख होता है जब मैं यह देखता हूं कि हमारे समाज आज कितने घटिया बिचारो में घिरा है।
इंद्रप्रकाश जो सेठ जी के बडे बेटे थे बोले।
बड़े भाई साहब संसार मे किसी सभ्य समाज की पहचान उस समाज की महिलाओं की स्तिथि का आंकलन वही सही दर्पण है।
बेटा, अभी हम पुराने युग मे ही जी रहे है,अतः हम अपने समाज का वहिष्कार भी तो नही कर सकते?।
तो पिताजी अब दीदी जिंदगी भर यही रहेगी।
प्रेम की दुल्हन ने अटपटा सबाल किया। नही बेटी ऐसा मेरे जीते जी नही हो सकता।
सेठ जी का चेहरा क्रोध से तमतमा उठा था वह अपनी भावनाओं को दबाने का प्रयास करते पुना बोले।
मैं अब स्वयं जाऊंगा, और जो भी लड़का हमारे समाज का अच्छा होगा, उसकी जो भी मांग जायज और नाजायज होगी मैं वह सब उन्हें पूरा करूंगा।
सेठ जी बोले।
मधु सभी लोगो की वहस मौन होकर सुनती रही, इंद्रा मधु के चेहरे के भावों को लगातार पढ़ने में लगी हुई थी,।
मधु के चेहरे पर विवाह के नाम पर एक क्षीण सी मधुर मुश्कान क्षण भर को उभरी और अगले पल, एक पल मात्र में विलीन हो चुकी थी।
अब केवल उसका चेहरा सपाट मायूस सा दिखता था।
इंद्रा उसके मनोभाबो और,मन की इच्छाओं को वहुत ही बेहतर तरीके से समझती थी,उसने मधु को अपना दूध पिला कर वड़ा किया था,जव मधु दो सवा दो साल की थी तो उसकी माँ मधु को उसे सोप कर हमेशा हमेशा के लिये इस दुनियां से विदा हो चुकी थी।
पिता जी आप लड़के को देखने जाए तो जल्दबाजी में कोई निर्णय नही ले।
प्रेम ने अपना विचार प्रस्तुत किया।
इंद्रप्रकाश तुम्हारी क्या राय है तुम भी हमे बताओ।सेठजी बोले।
पिता जी,आप बुरा ना माने तो मैं आप से कुछ कहूँ।
इंद्रा जो काफी समय से सभी की बातों को वहुत ध्यान से सुन रही थी वह अचानक बोली।
इंद्रा का पति सेठ जी का बड़ा पुत्र था,वह अपनी पत्नी के बोलने पर चुप चाप उसे सुनता रहा।
हाँ ...हाँ....क्यो नहीं ...वहु ...कहो ।
सेठ जी ने उसे आश्वाशन दिया।
इंद्रा एक पल शांत रही उसने मधु की ओर देखा और फिर धीमे स्वर में बोली।
आप सभी अपनी अपनी बातें अपने अपने अनुसार बोल रहे है,क्या आप सभी ने उसके मन मे भी झांकने की कभी किसी ने कोशिश की ,कि वह क्या चाहती है।
हाँ भाबी माँ आपने ठीक कहा ,दरअसल जिसके बारे में बात चल रही है उसकी भी राय लेने में हमे कोई एतराज नही है।
प्रेम ने स्वीकृति दी।
सेठ जी कुछ पल शांत शून्य में देखते रहे और फिर भरे कंठ से बोले। इंद्रा तुम मेरी पुत्र वधु ही नहीं बल्कि मेरी बेटी हो, मेने कई बार भूल की है,अब तुम ही विचार करो जो तुम सब की राय होगी वह मान्य होगी,मै नही चाहता कि मेरी मधु बेटी के रास्ते में पुनः कोई दुःख आये।
सेठजी भाव विह्वल हो उठे थे।
मधु उस असहनीय क्षण को बिताने हेतु उस डाइनिंग रूम से चुपके से निकल चुकी थी परिवार के किसी भी सदस्य का ध्यान मधु की ओर नही था।
हमारी शादी में तो किसी ने हमसे कोई बात नही पूँछी थी।
प्रेम की पत्नी ने तपाक से कहा।
उस रूम में स्तिथ किसी व्याक्ति ने भी उसकी इस अप्रत्याशित बात को गहराई से नही लिया।
मधु दीदी कहा है।
प्रेम बोला।
अभी तो खाना परोसवा रही थी,उसे देखो प्रेम उस का आना यहाँ जरूरी है।
इंद्रप्रकाश जो अब तक खामोश सभी सदस्यों की बात सुनते रहे थे वह प्रेम से बोले।
प्रेम अपनी चेअर से उठ कर खड़ा हो चुका था वह तेजी से लान की ओर गया,उसे पता था उसकी दीदी या तो वह फूलों के निकट फूल देखती होंगी, या फूलों से स्वयं बातें करती, या उन्हें तोड़ती ही दिखाई देती थी,।
इसलिए वह उधर लान की ओर चल पडा।
,बास्तब में मधु एक क्यारी के नजदीक पुष्पों को वेहद तनमयता से उन्हें देख रही थी।
मेरी प्यारी वहनिया बनेगी दुल्हनिया....बनेगी दुलह्नियाँ .।
प्रेम को गीत गाते देख मधु ने उसे हाथ उठाकर रुक ने का संकेत किया।
छोटे भैया क्या यह सब करना आपको, बडे भैया, पिताजी को अब मेरा पुनर्विवाह कराना शोभा देगा,आप सब को।
दीदी आप भी अजीब हो, अरे मैने सुना है कि शादी के नाम पर तो सभी के पेट मे लड्डू फूटने शुरू होते है.....और ,एक आप है कि कोई बात बताती भी नही।
मेरे भैया,तुम ने कभी वासी फूल को पूजा में देखा है।
वह धीमे से बोली।
हां हाँ क्यो नही देखे है,शहर में जब फूल नही मिलते है तो लोग फ्रिज में रख कर उन्हें उसी स्तिथि में बनाय रखते है।
प्रेम ने यह शब्द हँसते हुए बोले ।
नहीं मेरे प्रिय भैया......,जो फूल डाली से टूट जाता है... वह कुछ समय पर्यंत तक तो ठीक रहता है, किंतु .....काल की गति से वह अछूता नही रहता ...है..वह,शीघ्रता से इस लाइक नही रहता कि उसे भगवान की सेवा में पुन: चढ़ाया जाय।
दीदी,चलो न, सभी लोग आपका इंतजार कर रहे है।
मेरे भैया आप सभी मेरे विवाह के सपने ही क्यों देख रहे हो..... क्या पता..... आपको मेरी... दुल्हन.... बनी... लाश देखने को ही मिले।
वह सपाट स्वर में बोली।
दी...ईईई..दी,यह क्या आप अनाप शनाप कुछ न कुछ यूँ ही.. बोल... देती...हो..।
...प्रेम रुक रुक कर बोल रहा था उसके हृदय में एक गहरी दर्द की अनुभूति हो रही थी।......शेषान्स .....अगले अंक.. में... पढें।
Written by H.K.Joshi. P. T. O.