अनुच्छेद 69 मेरी यादों के झरोखों से
----------------------------------------------------- ---------------------------------------------------------------------------- --समय का पहिया बिना रुके चलता जा रहा था,।
मधु एक परित्यक्त जीबन जी रही थी उसके पिताजी को भी अब अपनी गलतियों का अहसास हो चुका था।
सेठ जी जब भी कभी मधु को उदास गुमसुम खोई हुई सी देखते तो उन्हें वहुत दुख होता था ।
वह जब भी मधु की ओर देखते ,उसकी सूनी मांग, और चेहरे पर छाई असँख्य पीड़ा की गहरी लकीरें, सेठजी का ह्रदय दर्द से भर कर पीड़ा से तार तार झनझनाने लगता , ।
या यूं कहा जाये वह यह सब मधु की जिन्दगी को बदतर बनाने में स्वयं को दोषी मानते थे।
.......किन्तु समय बड़ा बलबान है ,एक् बार जो बीत गया वह पुनः .....वापिस नहीं आता ....सिर्फ.... पश्चाताप के सिवा और कुछ नही रह जाता है ........ ।
ऋतुयें आती जाती रहती हैं, मौषम वदल ते जाते हैं पर, कुछ लोग एसे भी होते है कि सब कुछ बदल जाए पर वह नहीं वदलते है ,।
ठीक उसी तरह की थी मधु, वह न बदली और न ही उसकी चाहत बदली।
वह अब अपनी बड़ी भावी इन्दिरा के साथ रहती थी।
छोटी भाबी जो प्रेम की पत्नी थी वह स्वभाव की वहुत तेज थी इस कारण उससे उसकी कभी भी न बनती थी वह कभी भी अपनी छोटी भाभी से कभी कुछ नहीं मांगती थी, फिर भी प्रेम की दुल्हन हमेशा उसे नीचा दिखाने के लिए कोई न कोई बहाना तलाश करती रहती,।
प्रेम की पत्नी का विना मतलब उस पर असहनीय टोंट कसना उसकी रोज़मर्रा की आदतों में सुमार था
विवाह के बाद अक्सर माँ बाप भाई भावी उस लड़की को पराई समझ ने लगते हैं,कुल मिलाकर उस परिवार से शादी के बाद उस लड़की का नाता अपने ही घर में एक दूर के रिशतेदारों जैसा हो जाता है,वह अपने ही उस घर में जिसमें वह पली बढ़ी हुई शादी के बाद वह मेहमानों की तरह रहने लगती है, अगर वह कुछ दिनों को अपने पीहर में रहने आ जाये तो घर की महिला ही उस से अजीब सा ब्यवहार करने लगती है, साथ ही वह समाज अनेक अर्थ हीन प्रश्न पूँछने लगता है, क्योंकि उसके मूल में कारण है, सामाजिक मान मर्यादा का डर।
आज होली का दिन था मन को अहलादित करने बाली वसंती हवा का मानव जीवन मे विशेष महत्व है। खेतो में पकती सरसौं, चारो ओर महक ती फूलोँ की सुगन्धित, मदहोश करने बाली समीर, एसे में किसी के मन को मथने बाले अनंग के अद्भूत कारनामे तो नए नए स्वप्नों को जगाने में बैसे भी कुख्यात है, जैसे मन्मथ ने उन सब के स्वप्न जगाए थे बैसे ही मधु के अंग अंग में जगा दिय थे मीठे सपनें जैसे वह शकुंतला कालिदास की विरह विदग्धा नायिका, तुलसीदास की वह उर्मिला जो पति की विरह वेदना से त्रस्त हो कर कामदेव से विनय करती है , और वह मैथिलीशरण की वह प्रिय विरह मे व्याकुल राधा , इसी पवन को अपना दूत बनाकर अपने प्रियतम को प्रेम का सँदेश भेजती,और एक वह मधु जो समाज के भय से अपनी छोटी भाभी के कारण कभी भी अपने मन मे उठते प्रेंम भावों को प्रकट न कर सकती ,।
मधु के घर मे हंसी खुसी का माहौल था ,उसके भैया भावी अपने दोस्तोँ के साथ होली मना रहे थे,पूरे घर मे धमाचौकड़ी मचा रखी थी, प्रेम भी अपनी बड़ी भाभी इंद्रा को रँग से सराबोर कर चुका था,इंद्रा भीअपने पति इंद्रप्रकाश को अपने प्रेम के रँग से रंग चुकी थी, सेठ जी भी लोगों के गले मिलकर गुलाल अबीर उड़ा रहे थे।
पूरी कोठी वसन्त मय थी किन्तु इसी कोठी के एक हिस्से में जिसे लान कहते हैं में वैठी मधु भी सबसे दूर फूलों को देख रही थी ,अपनी पसंद के फूलों को बड़ी ही हसरतों से कुछ देर देखती रहती और बरवस उनको तोड़ कर अपने आचंल मे रख लेती,।
इस तरह ढेर सारे विविध रंग के बिविध पुष्प एकत्र कर चुकी थी वह ,तभी उस के मन के किसी कोने में छुपे उस के अपने चितचोर ने उससे शरारत भरा प्रश्न किया।
क्या करोगी इन फूलों का।
मधु ने अपने चारों ओर देखा और जब उसे पूर्ण विस्वास हो गया की उसे किसी ने नही देखा, तो बोली।
आज ...बसंतोत्सव होली ....है.... ना।
तो तुम्हे क्या लेना है इन सब से?
हिसस....इतना भी नहीं जानते।
वह शर्माती हुई वोली मानो उसका वह मनमीत उस के सामने हो।
नही,बताओ न......।
फिर वही उस मनमीत की आवाज उभरी मधु के ह्रदय के कोने से।
बुध्धू,....इतना भी नही समझते? जब आप मेरे घर आओगे तो ,आपसे मै अपने दिल का सारा का सारा गुव्वार इन्ही फूलों से आपके उपर निकलूंगी।
अच्छा ?.......,अगर ...मैं ...नही ...आया तो?.....।
वह चितचोर मुसकराया।
नही ऐसा तो हो ही नही सकता, भला कान्हा अपनी राधा के बिना... रह ...जाये...।
इतना बड़ा.... विस्वास...इतना... गुरुर..अपने प्रेम पर।
यह सब आपके प्यार का ही तो कमाल है।
पर इतने वर्षों में तो कभी तुम ने हमें याद न किया?।
वह उसका चितचोर मुष्कराया।
यह जूठा इल्ज़ाम हम पर क्यो ? आपको हम भूले ही कब थे ,आप तो हमारी हर श्वांस में होकर दिल में धड़कते हो, जिस दिन ....इस दिल की धड़कने आपका नामजाप बन्द कर देगी तो समझ लेना..... की अब मधु इस दुनियाँ में नहीं रही।
ओ ह...इतना आलौकिक प्रेम।
हाँ......वस यही तो एक मात्र है मेरे पास जिसे कोई मुझ से नहीं विलग कर सकता, दिन रात स्वांसों की डोर बिना तोड़े जपती हूँ आपका नाम।
वह गर्व से मुस्कराई।
पर यह लौकिक प्रेम में तुम्हें मुझ से क्या मिलेगा एक सांसारिक बन्धन पुनः जन्म लेकर तम्हारी इच्छा को पूर्ण करना,इस तरह तो हमारा आवागमन चलता रहेगा?
वह चितचौर उस से बोला।
आप मुझे भटका रहे हो।
कैसे भला.....।
जब से यह स्रष्टि रची है तभी से हम दोनों एक दूजे के लिए बने है ,रही बात आने और जाने की यह सनातन सत्य निरन्तर अनवरत युगों युगों से चलता रहा है। और निरंतर चलता रहेगा, यह चिंतन का विषय नहीं , सम्पूर्ण व्रह्माण्ड ,पृथ्बी ,आकाश जो भी दृष्टि गोचर है उसी प्रेम और श्रद्धा पर टिका है,जिस दिन मेरी श्रद्धा टूटी या आपका विश्वास डगमगाया वस उसी क्षण इस युग का अंत हो जाएगा ,और हम दो एक होते हुय दो नही बल्कि अनेक अणुओं में विखर जाएंगे ...और इस तरह एक काल खण्ड की अवधि पूरी हो जायेगी और उस समय मै, मै न हो कर,और तू ,तू न होकर इस शून्य मे लय हो जाएँगे, और पुनः कालपर्यंत एक नई सृष्टि की रचना होगी उस समय भी मेरा और आपका वही आकर्षण एक दूजें को होगा।
वह चितचोर मुश्कराया,थोडा आगे वड़ा और उसे अपने अंक में भर कर एक प्रगाढ़ आलिंगन किया ।
ऊँह....... रहने दो कोई देख लेगा,।
वह जोर से बोली।
कौन है ..कौन है..दीदी ....आपको कौन छेड.... रहा है।
अंदर से आती प्रेम की दुल्हन ने मधु को जोर जोर से झिझोड़ा।
आँअअअअअअ वह चौक पड़ी, कि...शो...र....आप कहाँ हैं।
उसके मुख से अस्पष्ट शब्द निकले।
कौन किशोर.?...।
यह कब से तुम्हे परेशान.... करता है तुमने दीदी.... पहिले ...क्यो नही ....बताया,अरे क्या ? अपने ....खान दान की नाक ....कटबाकर.... मानोगी।
जोर जोर से चिल्लाती प्रेम की पत्नी कोठी के अंदर ड्रायगरूम में पहुंची, जहाँ प्रेंम,इन्द्र प्रकाश और सेठ जी के साथ इंद्रा भी बैठी थी।
लो अपनी लाडली वहन की करतूत सुन लो और देख भी लो।
वह पैर पटकती हुई प्रेम से उलाहना देती जोर से बोली।
अरे वहू क्या बात है,जरा धीरे से बोलो।
इंद्रप्रकाश ने उसे टोका।
अभी तो मैं जोर से बोल रही हूँ फिर सारा गांव की वस्ती आपके और आपके खान दान पर जोर जोर से थूकेगी।
अब आगे बताओगी भी या पहेलियाँ बुझती रहोगी ।
प्रेम गुस्सा में भर कर अपनी पत्नी पर चिल्लाया।
लो सुनो ,तुम्हारी बहिन पता नहीं किस किस से मुहँ काला कर बाती है।
मुहँ को लगाम लगा बहु उसे बदनाम करेगी तो अच्छा नही होगा।
अब सेठ जी क्रोध में उठ कर खड़े हो चुके थे।
किस किस का मुँहू बन्द करोगे,? आप ,मैं तो गरीब मां बाप की हूँ जैसे चाहें मारपीट कर मेरा मुहँ बन्द कर दो।
जाओ अपनी बड़ी भावी को बताओ क्या बात है पूरी।
इंद्र प्रकाश इंद्रा की ओर देखता बोला।
इन्ही की बदौलत बिगड़ी है यह लड़की, न शर्म न लज्जा है थोड़ी भी उसमें।
इंद्रा अपनी देवरानी का हाथ पकड़ कर अपने कमरे में अति शीघ्र ले गई।
अब बताओ क्या बात हुई।
वह धीरे से बोली।
देखो,...दीदी आप मुझ से बड़ी जरूर है पर यह नही की आपकी बजह से हम सब की नाक कट जाये।
पर हुआ क्या ,आगे बोलोगी या इसी तरह पहेलियाँ बुझाओगी।
इंद्रा अपमान का घूँट भरती हुई तेज आवाज में बोली।
आपकी चहेती ननद कोठी के लॉन में अपने प्रेमियो के साथ रंगरेलियां मनाते हुए पकड़ा है मैंने उसे ।
इन्द्रा आश्चरये से उसका मुँहू ताकने लगी।
क्यों मेरी बात पर बिस्वास नही होरहा है?।
इंद्रा को लगा किसी ने उसके कांनो में पिघलता पारा डाल दिया हो।
क्या कह रही हो तुम बिन सोचे समझे? ।
इंद्रा के मुहँ से अचानक शब्द निकले।
मै ठीक कह रही हूं।
वह तेजी से वोली।
याद रखना अगर तुम्हारी बात में थोड़ा भी झूठ मिला तो मैं तुझे कभी मांफ नहीं करूंगी।
इंद्रा ने आक्रोश में उससे कहा।
दीदी आप वडी है जो चाहे वो कहे,पर यह जो मैं कह रही हूँ वह सत्य है, आप मेरे साथ चलो देखो वह अभी भी लोंन में मौजूद है।
वह अपनी जिठानी का हाथ पकड़ कर लान में ले गई।
उसका अर्द्ध कथन सत्य था,क्योकि मधु एक लम्बे समय से लान में थी ।
उसने अनेक रंगों के प्रसून अपने आँचल में ले रखे थे, वह अब भी अपनी दोनोँ आँखों को बंद किये हुए कपोलों पर मोटे मोंटे दृग विन्दु की वहती नमकीन धारा लिय थी,और उसके जो ओठों पर अस्पस्ट उभरता ... वह था किशोर शब्द।
आप..... कहाँ हो, अब मैं अपना सब... कुछ हार चुकी ...हूँ इस... जीबन में,... मेरे जीबन में ...वसा ये आपका.... प्यार और इसे ...भी नहीं रहने... देना चाहते है... बो लोग।
मधु की आवाज में जमाने भर का दर्द सिमट आया था।
इंद्रा मधु की वह दयनीय दशा देख कर वहुत दुखी थी उसने उसे अपनी वाहों में लेकर अपने सीने से चिपटा लिया,।
मेरी बच्ची।
मधु भी किसी लता की भाँति उस से लिपट गई थी।
चलो उठो बेटी चलो ,अपने कमरे में।
इंद्रा मधु की पहली विक्षिप्त जैसी स्तिथि देख कर काँप उठी।
दीदी इस कुलटा को आप...।
चटाक की तेज आबज गूँजी और अगले पल इंद्रा के हाथ की पाँचो उंगलियां अपनी देवरानी के गालों पर छाप अंकित कर चुकी थीं।
चली जा मेरे सामने से बद्तमीज ।
इंद्रा किसी भूखी शेरनी की भांति दहाड़ी।
प्रेम की पत्नी अपना सा मुहँ लेकर अंदर की ओर दौड़ पड़ी,।
इंद्रा ने मधु को संभाला वह अवसाद की स्थिति मे अचेत हो चुकी थी ,अता इन्द्रा ने वहीं क्यारियों के वीच घास पर उसे लिटाया और निकट पानी की टँकी से पानी लेकर उसके मुँहू पर छिड़का ,।
चन्द पल में मधु की आँखे कंपकँपाई और अगले पल चारो कोनों से मोटी मोटी बूँदे निकलती चली गई।
अब कैसी हो।
इंद्रा बोल उठी।
भाबी माँ मै ठीक हुँ।
चलो सब तुम्हारा ही,अंदर इंतजार कर रहे हैं।
इंद्रा उसको अपनी बाँहो का सहारा देती हुई उसे लिये हुए ड्राईंगरूम में पहुँची।
लो यह है मधु,और पूँछ लो इस से की इसने अब तक इस घर मे क्या सुख प्राप्त किया....।
इंद्रा के आँसू उसके गालों पर वहते स्पस्ट दिख रहे थे।
बहू.... मत..... दुखी हो, मैं जानता हूँ तेरी.... परवरिश कभी.... भी गुमराह.... नही हो सकती।
सेठ जी की आबाज लरज उठी, जो वर्षों से भरी पीड़ा बाहर आने को बेताब थी।
प्रेम भैया लो पूँछो, मेरी बेटी से की इसने तुम्हारी इज्जत कितनी डूबाई है...अरे तुम्हें एसा सोचते जरा भी लाज नही आई.....बस इसके कहने मात्र से मेरी बेटी पर इतना बड़ा लाँछन लगाते जरा भी तुम्हारी जीभ न दुखी।
भाभी मुझे क्षमा कर दो मैं स्वयँ आज अपनी वडी बहिन की नजरों में गिर गया हूँ।
प्रेम का गला भर चुका था वह अपनी पत्नी अनु को घूर ने लगा।
चल अब बोल इसने कैसे और किसके साथ मुँहू काला किया।
प्रेम ने अनुराधा का मुहँ पकड़ कर झिझोड़ा।
रहने दो.... भाई... तुम्हे .....मेरी ...सौगन्ध।
मधु ने प्रेम का हाथ अपनी छोटी भाबी के मुहँ से मुश्किल से हटाया।
ले देख चुड़ैल, तू कितनी गिरी हुई है देख इसकी तो तू पैरों की धूल के बराबर भी नहीं है और ना कभी होगी।
मुझे दीदी माँफ कर दो।
अनुराधा मधु के पैरों में गिर कर मांफी मांगने लगी।
मधु ने उसे अपनी बाँहो में भर कर सीने से लगा लिया वह भी उस से चिपट कर रोने लगी,किन्तु इंद्रा इतने से खुश नही थी।
उसकी आबाज फिर ड्राईंगरूम में गूंज ने लगी,वह कह रही थी।
पिताजी,कब तक जियेगी मेरी बेटी इस परित्यक्ता का सर्टिफिकेट लिये,आप सब क्यो नही इसको इसके सही जगह पर क्यों नहीं भेजते।
बेटी तुम ठीक कह रही हो, अब हम इसकी व्यबस्था स्वयं करेंगें। ......शेषांक ........अगले अंक में ।Written by H. K. Joshi. P. T. O.