*इस सृष्टि में चौरासी लाख योनियों में सर्वोत्तम योनि मनुष्य की कही गयी है | अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में मनुष्य यत्र - तत्र भ्रमण करता रहता है इस क्रम में मनुष्य को समय समय पर अनेक प्रकार के अनुभव भी होते रहते हैं | परमात्मा की माया इतनी प्रबल है कि मनुष्य उनकी माया के वशीभूत होकर काम , क्रोध , मोह , प्रेम , तिरस्कार , मिलन एवं वियोग आदि के जाल में फंसा रहता है | मनुष्य कुछ दिन के लिए किसी नये स्थान पर जाता है तो वहाँ उसको प्राप्त हुई आत्मीयता मनुष्य को बहुत सुखद प्रतीत होती है परंतु जब मनुष्य को उस स्थान को छोड़कर जाना पड़ता है तो वहाँ मिले लोगों के प्रति उसका स्नेह छलक पड़ता है और प्रियजनों के विछोह से उसे आत्मिक कष्ट होता है | यही मनुष्य की आसक्ति एवं मोह है | यह सम्पूर्ण सृष्टि संयोग एवं वियोग की ही धुरी पर गतिमान है | जहाँ संयोग (मिलन) होता है वहीं एक निश्चित समयावधि के उपरान्त वियोग भी है | कभी - कभी दैवीय प्रेरणा एवं सांसारिक कार्यों से लोगों से मिलन होता है | संयोग में यह आवश्यक नहीं है कि मिलने वाला समानकर्मा , समानधर्मा , समान स्वभाव या समान कुल , गोत्र या वर्ण के ही हों ! यह कहीं भी किसी से भी हो सकता है | आवश्यकता के अनुरूप संयोग होता है और यही संयोग एक समय बाद बिखरकर वियोग में बदल जाता है | संयोग निर्मित मिश्रण का अपना प्रभाव असरकारी रहता है , नवीन सृजन की भावभूमि रचने वाला संयोग एक न दिन वियोग में परिवर्तित अवश्य होता है , यही सृष्टि का नियम है | वियोग हो जाने के कुछ दिन बाद सबकुछ पुन: पहले जैसा हो जाता है | मनुष्य धीरे - धीरे जीवन में होने वाले नवीन संयोग के हर्ष में पुराने प्रियजनों के वियोग से स्वतंत्र हो जाता है |*
*आज के युग के मनुष्य ने प्रेम / मिलन (संयोग) का अर्थ ही बदलकर रख दिया है | कुछ दिन के मिलन को वह जीवन की निधि मानकर हर्षातिरेक में डूब जाता है | तो वहीं वियोग में कभी - कभी मनुष्य सम्बन्धित प्रिय या वस्तु की याद में विक्षिप्त सा भी हो जाता है | जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" याद दिलाना चाहूँगा कि यह जीवन एक यात्रा है | जिस प्रकार लौहपथगामिनी (रेलगाड़ी) में यात्रा करते समय अनेक यात्रियों का संयोग (मिलन) होता है परंतु जब जिस व्यक्ति का गंतव्य आ जाता है तब वह साथ छोड़ने को विवश हो जाता है और आपस में वियोग हो जाता है , परंतु उस वियोग को मनुष्य अधिक महत्त्व नहीं देता है | उसी प्रकार इस जीवनरूपी यात्रा में भी भिन्न - भिन्न स्थान पर प्रेमी वन्धुओं का संयोग होता रहता है परंतु संयोग का समापन वियोग से ही होता है क्योकि प्रत्येक तत्त्व और पदार्थ का संयोग एवं वियोग स्वाभाविक क्रम है और यह प्रकृति के शाश्वत नियमों के अनुरूप निरन्तर चलता रहता है | इस परिवर्तन पर किसी का नियंत्रण न तो रहा है और न ही हो पायेगा | इस संसार में जहाँ संयोग के दर्शन होते हैं वहीं कालान्तर में वियोग भी दिखाई पड़ता है | मनुष्य किसी से संयोग में जितना आनंदित होता है वियोग में उतना ही दुखी भी हो जाता है | संसार के जितने भी नाते - रिश्ते हैं सब एक निश्चित अवधि तक ही स्थिर रहते हैं समयावधि पूर्ण होने पर इन रिश्तों का वियोग अवश्यम्भावी है | इस वियोग रूपी ज्वाला से वही बच पाते हैं जिन्हें संसार की सत्यता का ज्ञान हो और जिनके पारिवारिक संस्कार की जड़ें मजबूत हों |*
*संयोग एवं वियोग सनातन है यह युगों से होता चला आ रहा है , जो इसे समझ जाते हैं वे इस भंवर से निकल जाते हैं अन्यथा शोक - संताप में जीवन बरबाद कर देते हैं |*