मुठ्ठी भर रौशनी
बंगाल प्रवास (१९९१-'०४) में एक
मनभावन नृत्य नाटिका देखा १९९४ ई.
मकरसंक्रांति (कपिलमुनि गुहा, झालिदा)
के दिन।
दो पंक्तियाँ याद हैं-
सबारे कोरी आह्वान,
सबाइ आमार प्राण
चाँद सूर्य की रौशनी से चमकता है, हम हमारी यह
दुनिया चमकती है, सूर्य भी किसी अन्य ग्रह नक्षत्र
की रौशनी से हीं चमकता है, उसकी अपनी नहीं।
ओर, वह दूरस्थ प्रकाश श्रोत भी किसी से रौशनी
पा बिखेरता है। वह परम सत्ता रौशन है जो हमारे
मन में है, हृदयांचल में है। वही हमारे चारो ओर
आभा फैल दिख सकता है, आयें उसे मुठ्ठी में भर
सभों को बाँटे, अनंत है रिक्तता का प्रश्न हीं नहीं।
गितिका से प्रेरित हो यह कविता लिखा---
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मैं नित सभों का आह्वान किया करता हूँ।
मुट्ठी में भर प्रकाश मैं लिये फिरता हूँ।
सभी प्राणों के प्राण- मेरे प्रिय हैं।
सबको आभा से मैं भरते रहता हूँ।
सबको अपने साथ लिये चलता रहता हूँ।
सामुहिक आलोक स्नान का-
मन बनाया है- बँधुओं को कहता रहता हूँ।
कोई एक भी देखो मित्र पीछे छुट न जाए।
दु:खित हो कोई जीव आँसू बहा नहीं पाए।
सभी एक हीं तरंग में जीवन के गीत गाएँ।
मुट्ठी खोलूं पर आभा लुटा कर भी रिक्त हो न पाये।
मानव मानव में कोई भेद भाव नहीं कर पाये।
सभों की शुभ इच्छायें पूर्ण हों- तृप्त हो जायें।
एक दिव्याकाश तले रह आदर्शिता हम अपनायें।
ईश्वर के ओजवान बेटा-बेटी हम मित्रगण कहलायें।
ब्रह्माण्डीय आलोक हमारी मुट्ठी में समाता जाये।
शक्ति संपात कर आभा से घर आँगन चमक-दमक जाये।
🙏💥डॉ. कवि कुमार निर्मल💥🙏