तपस्वी समाधि तोड़ो
ओ' मूक तपस्वी ध्यान किसका? नित करते हो।
नवचक्रों का शोधन कर 'मंत्राधात्' कर थकते हो।
वृत्तियों पर नियंत्रण कर समाधिस्थ हो जाते हो।
सिद्धियों के स्वामि बन शक्तिसंपात तक करते हो।
व्यर्थ सारा तेरा यह अध्यात्मिक महाप्रपंच,
अगर जग का हित तुम नहीं कर थकते हो।
सुवासित पुष्प चुन उद्यान से माला नित गूँथ,
परम अराध्य की ग्रीवा का हार बनाते हो।
धूप-कपूर-चंदन आरती संग धुआं दिखाते हो।
आजीवन पूजा कर- बुला नहीं उनको पाते हो।
त्रिभुवनपति की वसुंधरा का तुम वँश,
शक्तिमान् श्रेष्ठतम् जीव मानव तुम हो।
हरा भरा उद्यान के स्वामि रहते भी
तुम घर के बाहर जा नहीं पाते हो।
मन को धोल कलाकृतियों संग,
भव्य मण्डप उनका श्रिंगार कर तुष्ट हो जाते हो।
ओ' मूक तपस्वी तुम सानिध्य तक नहीं पाते हो।
मन में प्रचण्ड एषणा सामिप्य-सांजुज्य की गहराओ।
मन मंदीर के उद्यान में तनिक रम अनहद तक जाओ।
हाहाकार मचा- भयाक्रांत जग सारा,
विषाणुओं की मार देख भी सात्विक बन नहीं पाते हो।
लाशों के पटी धरती- अराध्य के पट बंद कर सुलाते हो।
रात्रि के सघन तिमिर-साम्राज्य से
संघर्षउषा-काल में अरुणिमा की आशा है।
विदारक कष्ट हुए बहुत परन्तु अब-
घर से बाहर जाने में नहीं उतनी बाधा है।।
स्वास्थ्य रहें अति उत्तम- निरोग हो काया,
ऐसा तुम सुनाश्चित कर हीं अब कुछ करना।
वातावरण हुआ अशुदा- प्रदुषण छाया,
सुरक्षा कवच साथ अपने हरपल तुम रखना।
हृदयांचल में मानसिक पुष्प सद्गुरु की प्रतिकृति सजाओ।
सुवासित खिलें फूल छत के गमलों से तप का फल पाओ।।
डॉ. कवि कुमार निर्मल_____✍️
बेतिया, पश्चिम चंपारण, बिहार
स्वरचित मौलिक रचना©®😘