*सनातन धर्म में कर्मफल के सिद्धांत को शास्त्रों एवं समय समय पर ऋषियों के द्वारा प्रतिपादित किया गया है | कर्म को तीन भागों में विभाजित किया गया गया है जिन्हें क्रियमाण , संचित एवं प्रारब्ध कहा जाता है |इन्हें समझने की आवश्यकता है | क्रियमाण कर्म तत्काल फल प्रदान करते हैं | ये प्राय: शारीरिक होते हैं जैसे :- नशा किया और उन्माद चढ़ गया , विष खाया और उसका प्रभाव हो गया , अग्नि को स्पर्श करते ही हाथ का जल जाना आदि | क्रियमाण कर्म को खान पान के आधार पर स्वास्थ्य के बनने - बिगड़ने के रूप में भी देखा जा सकता है | कुल मिलाकर बिना किसी मानसिक ग्रंथि के शारीरिक कर्म क्रियमाण कर्म कहे जा सकते हैं | इसका दूसरा भाग है संचित कर्म , जो तत्काल फल नहीं प्रदान करते | अनुकूल वातावरण में यह कर्म फल देते हैं और यदि इनके प्रतिपक्षी कर्मों का सामना करना पड़े तो इनका प्रभाव नष्ट भी हो जाता है | ये एक प्रकार से अपरिपक्व एवं क्षीण कर्म होते हैं जिनके संस्कार हल्के होते हैं | प्राय: सतसंग , स्वाध्याय , दैनिक पूजा एवं तीर्थयात्रा आदि के माध्यम से जिन पापों के कटने की बात की जाती है वे ऐसे ही संचित कर्म होते हैं | इन्हीं दोनों कर्मों (क्रियमाण एवं संचित) के आधार पर मनुष्य भाग्यविधाता होता है | परंतु तीसरे प्रारब्ध कर्म पर किसी का भी वश नहीं होता है | प्रारब्ध तीव्रभाव एवं संवेग से किये गये कर्म होते हैं , जो अपरिपक्व अवस्था में होते हैं तथा अपनी परिणिति में अटल फल लिये होते हैं | प्रारब्ध कर्म कब फलित होंगे यह कुछ कहा नहीं जा सकता | इनका फल इस जन्म में भी मिल सकता है और किसी अन्य जन्म में भी | राजा धृतराष्ट्र को एक सौ आठवें जन्म में आँख फोड़ने का कर्म जन्मांध के रूप में भोगना पड़ा था | प्रारब्ध कर्म के फल को अखण्ड तप से कम तो किया जा सकता है परन्तु नष्ट कोई नहीं कर सकता | प्रारब्ध का सिद्धांत अटल है यह संचित और क्रियमाण की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली होता है | प्रारब्ध कर्मों का फल अवश्य मिलता है |*
*आज मनुष्य आधुनिकता की चकाचौंध में इतना ज्यादा भ्रमित हो गया है कि वह कर्मों की ओर ध्यान ही नहीं दे रहा है | बिलासपूर्ण जीवन जीने के लिए आज मनुष्य कर्म , अकर्म , विकर्म , कुकर्म सब कर रहा है और जब कोई आकस्मिक घटना / दुर्घटना घट जाती है तो मनुष्य सोचता है कि हमने तो ऐसा कोई कर्म किया ही नहीं जिसका फल हमें मिला | वह संचित , क्रियमाण और प्रारब्ध के सिद्धांत को भूल जाता है | यह आवश्यक नहीं है इस जन्म में किए कर्मों का फल ही हमें मिले बल्कि यह सत्य है कि अन्यान्य जन्मों में किए गए कर्मों का फल भी हमें प्रारब्ध के रूप में भोगना ही पड़ता है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" बताना चाहूंगा कि यह आवश्यक नहीं है कि सत्कर्म करने वालों को कष्ट ना मिले | इतिहास में अनेकों प्रमाण है , प्रारब्ध कर्मों का फल भोगने से स्वयं मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम एवं लीला पुरुषोत्तम श्री कृष्ण नहीं बच पाए हैं तो साधारण मनुष्य की क्या विचार है | यह संसार कर्म पर ही आधारित है जिसने जैसा कर्म किया है उसको उसका फल भोगना ही पड़ेगा चाहे वह इस जन्म के कर्म हों या किसी अन्य जन्म के प्रारब्ध का फल तो भोगना ही पड़ेगा परंतु आज मनुष्य किसी आकस्मिक घटना पर समाज , परिवार एवं ईश्वर को दोष लगाता हुआ अपना दोष छुपाने का प्रयास करता है | एक बात हमें ध्यान रखनी चाहिए कि ईश्वर कभी किसी के साथ अन्याय नहीं करता | उसने मनुष्य के हाथ में कर्म रूप में ऐसी चाबी दे दी है जिससे मनुष्य जैसा चाहे (चाहे सुख का या दुख का ) द्वार खोल सकता है परंतु आज के युग में मनुष्य इतना ज्यादा भ्रमित हो गया है कि वह ईश्वर तक को अन्यायकारी कहने लगता है | ईश्वर कभी अन्याय नहीं करता बल्कि जीव अपने किए गए कर्मों का फल भोगने के लिए ही इस धराधाम पर जन्म लेता है |*
*जिसने संचित , क्रियमाण एवं प्रारब्ध के रहस्य को समझ लिया वह जीवन में कभी भी दुखी नहीं होता है और किसी भी सुख एवं दुख के लिए अपने कर्मों का फल समझकर ईश्वर को धन्यवाद ही देता रहता है |*