*सनातन धर्म में मानव जीवन को चार भागों में विभक्त किया गया :- ब्रह्मचर्य , गृहस्थ , वानप्रस्थ एवं सन्यास | सन्यास का लक्ष्य होता है परमात्मा की प्राप्ति , सन्यास लेना बहुत ही कठिन है | प्रायः मनुष्य को जब किसी भावनात्मक चोट से , स्वयं के विचार से वाह्य भौतिक जगत से मोहह टूटता है तो व्यक्ति स्वयं और स्वयं के जीवन का कारण ढूंढने लगता है , यहीं से सन्यास का प्रारंभ होता है | इसके लिए कोई नियम नहीं है | सन्यास पूर्णतया भावनात्मक ज्ञानमार्ग है जो विचार शक्ति , तर्कशक्ति , मनन शक्ति के द्वारा भौतिकता का भेद कर अंतिम सत्य तक पहुंचता है | सन्यास धारण करने का अर्थ है मोह माया एवं भोग विलास से विरक्त हो जाना परंतु मानव समाज में एक भ्रांति फैली हुई है कि सन्यास का अर्थ है संसार से पलायन कर जाना | वस्तुत: सन्यास का अर्थ होता है सत्य को खोज करके उसे प्राप्त करना | सत्य को संसार में रहते हुए भी खोजा जा सकता है | अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ कर या फिर संसार को छोड़ने का प्रयास करते हुए जो मनुष्य सन्यासी होने का प्रपंच करता है वह सन्यासी नहीं हो सकता क्योंकि जिस परमात्मा को (सत्य को) खोजने के लिए वह सन्यासी होने की घोषणा करता है उसी परमात्मा की अभिव्यक्ति अर्थात इस संसार को वह त्यागने की बात करता है तो भला विचार कीजिए कि वह सन्यासी कैसे हो सकता है ? भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं बताया है कि इस संसार में रहते हुए , सांसारिकता का निर्वहन करते हुए भी उसमें राग न रखना हीं वास्तविक सन्यास है | भगवान श्रीकृष्ण से बड़ा योगी एवं सन्यासी कोई दूसरा नहीं हुआ | इस संसार में किसी के लिए कोई भी प्रिय नहीं होता सभी अपने लिए ही प्रिय होते हैं यहां कुछ भी सास्वत नहीं है ना तो जीवन ना ही जीवन के सुख | हम नहीं जानते कि हम क्या हैं ? कहां से आते हैं ? कहां चले जाते हैं ? इस सत्य को जानने के लिए प्रयत्नशील होना ही सन्यास धारण करना है | ना तो कपिल भगवान को किसी ने दीक्षा दी थी ना ही शंकराचार्य एवं आदिनाथ जी को | जो आचरण , नियम , व्रत के कठोर बंधनों में बंधा है वह सन्यासी नहीं हो सकता वह पाशबद्ध अज्ञानी से अधिक कुछ भी नहीं है | अपने राजमहल में रहकर राज्य का कार्यभार संभालने वाले महाराज जनक भी सन्यासी कहे गए हैं | संसार से पलायन करने का विचार हृदय में उत्पन्न करके अपने घर परिवार को छोड़कर सन्यास धारण करके यदि मनुष्य भोग विलास एवं मोह माया से दूर नहीं हो सकता तो उसके सन्यास धारण करने का कोई अर्थ ही नहीं है |*
*आज आधुनिकता ने सर्व समाज को अपने पास में जकड़ रखा है | वानप्रस्था सन्यासी एवं सनातन धर्म के उच्च पदों पर आसीन अनेक महापुरुष संसार से दूर रहते हुए मोह माया से विरक्त होने का दावा तो करते हैं परंतु यह सत्य नहीं हो सकता | संसार से पलायन को आज हम आध्यात्म समझते हैं , परंतु मैं आचार्य अर्जुन तिवारी अब तक जो अपने सद्गुरुओं से जान पाया हूं उसके अनुसार बताना चाहता हूं कि परमात्मा की इसी अभिव्यक्ति में जिसका नाम संसार है इसी संसार में निस्पृह भाव से रहते हुए निष्काम भाव से लोकमंगल के कार्य को करते रहने में सच्चा सन्यास भी निहित है और सामाजिक उत्थान भी | जब परमात्मा कण कण में विराजमान है और इसे स्वीकार भी किया जाता है तो भला इस संसार से पलायन कैसे किया जा सकता है ? जिस प्रकार आंख बंद कर लेने से सामने खड़ी विपदा नहीं समाप्त हो जाती वैसे ही कामनाओं , वासनाओं से मुंह छुपा लेने से वह हमारे चिंतन से विदा नहीं हो पाती है | कोई भी मनुष्य जब तक बैचारिक दृष्टि से , मन से बंधन मुक्त नहीं होता है तब तक उसका सन्यास सफल नहीं हो सकता | जब तक मनुष्य का आंतरिक रूपांतरण ना हो तब तक उसे सन्यासी नहीं कहा जा सकता क्योंकि सन्यास धारण करने का अर्थ होता है कि मनुष्य अपने परिजनों के सहित स्वयं का भी पिंडदान अर्थात अंतिम क्रिया करके तभी इस आश्रम में प्रवेश करने का अधिकारी होता है | अपने परिजनों के सहित अपने पिंडदान से निवृत्त होने का अर्थ है कि समस्त सांसारिक मोह माया से विरक्त हो जाना तथा निर्लिप्त भाव से परमात्मा भाव में लग जाना | जब तक यह भाव मन में नहीं उत्पन्न होगा तब तक सन्यास का कोई अर्थ नहीं रह जाता है | सन्यास धारण करने के लिए संसार को , समाज को छोड़ने की आवश्यकता नहीं है बल्कि मनुष्य के आंतरिक रूपांतरण की आवश्यकता है | जिस दिन मनुष्य का आंतरिक रूपांतरण हो जाता है उसी दिन वह महाराज जनक की तरह इसी समाज में रहते हुए भी सन्यासी कहा जाने लगता है |*
*स्वयं को परिवार , समाज एवं संसार से दूर करने की अपेक्षा सांसारिकता एवं मोहादि रोगों तथा विलासपूर्ण भोगों से दूर करने का प्रयास करके सन्यास के क्षेत्र में पहला कदम बढ़ाया जा सकता है |*