*इस संसार में जीवधारियों को तीन प्रकार से कष्ट होते हैं जिन्हें त्रिविध ताप कहा जाता है | ये हैं - आध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैविक | सामान्यतः इन्हें दैहिक, भौतिक तथा दैविक ताप के नाम से भी जाना जाता है | इस शरीर को स्वतः अपने ही कारणों से जो कष्ट होता है उसे दैहिक ताप कहा जाता है | इसे आध्यात्मिक ताप भी कहते हैं क्योंकि इसमें आत्म या अपने को अविद्या, राग, द्वेष, मू्र्खता, बीमारी आदि से मन और शरीर को कष्ट होता है। जो कष्ट भौतिक जगत के बाह्य कारणों से होता है उसे आधिभौतिक या भौतिक ताप कहा जाता है | शत्रु आदि स्वयं से परे वस्तुओं या जीवों के कारण ऐसा कष्ट उपस्थित होता है | जो कष्ट दैवीय कारणों से उत्पन्न होता है उसे आधिदैविक या दैविक ताप कहा जाता है | अत्यधिक गर्मी, सूखा, भूकम्प, अतिवृष्टि आदि अनेक कारणों से होने वाले कष्ट को इस श्रेणी में रखा जाता है | कहा जाता है कि राम राज्य में किसी को भी तीनों प्रकार के कष्ट नहीं थे | तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस में लिखा - "दैहिक, दैविक, भौतिक तापा ! राम राज्य नहिं काहुहिं व्यापा !!" अर्थात :- राम राज्य में किसी को दैहिक, दैविक व् भौतिक ताप नहीं व्यापते थे | सब मनुष्य परस्पर प्रेम करते और सभी नीतियुक्त स्वधर्म का पालन किया करते थे | वहां कोई शत्रु नहीं था | इसलिए जीतना शब्द केवल मन को जीतने के लिए प्रयोग में लाया जाता था | कोई अपराध नहीं करता था इसलिए दण्ड किसी को नहीं दिया जाता था , यही था रामराज्य |* *आज भी राम राज्य की इन विशेषताओं को जानने के पश्चात मानवमात्र में एक जिज्ञासा अवश्य उठती है कि राम राज्य की इस भौतिक व अध्यात्मिक समृद्धि के पीछे कारण क्या था | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" बताना चाहूँगा कि जैसे एक हरे भरे वृक्ष का मूल उसकी स्वस्थ जड़ें होती हैं उसी प्रकार एक राज्य का कर्णधार उसका राजा होता है | "यथा राजा तथा प्रजा" – जैसा राजा होता है वैसी ही उसकी प्रजा हो जाती है | राजा को आत्मज्ञानी होना चाहिए, अन्यथा एक आत्मज्ञानी को राजा बना देना चाहिए | ऐसा इसलिए, क्योंकि एक आत्मज्ञानी ही निस्वार्थ भावना से समस्त मानवता के कल्याणार्थ परमार्थ कर सकता है | उसकी दूरदर्शिता, उसका उज्जवल चरित्र एवं त्रुटिरहित संचालन ही राज्य को पूर्णरुपेण विकसित व व्यविस्थत कर सकता है | त्रेता के मर्यादित रामराज्य में यही तथ्य पूर्णत: चरितार्थ था | वर्तमान समय में भी यदि हम ऐसे ही अलौकिक राम राज्य की स्थापना करना चाहते हैं, तो हमें सर्वप्रथम रामराज्य के आधार – श्री राम व उनके दिव्य चरित्र को जानना होगा ! ऐसे ब्रह्मस्वरूप श्री राम को केवल ब्रह्मज्ञान के द्वारा ही जाना जा सकता है | एक तत्ववेत्ता गुरु जब हमें ब्रह्मज्ञान प्रदान करते हैं, तभी हमारे भीतर प्रभु का तत्वरूप ज्योति – स्वरूप प्रकट होता है और हम उनकी प्रत्यक्ष अनुभूति करके उनके चरित्रों का पालन कर पाते हैं |* *रामराज्य की पुनर्स्थापना के लिए समाज बदलने की आवश्यकता नहीं बल्कि मानवमात्र यदि स्वयं को श्री राम के गुणों का अनुयायी बना ले तो पुन: रामराज्य की स्थापना स्वमेव हो जायेगी |*