*आदिकाल से मनुष्य में सद्गुण एवं दुर्गुण साथ - साथ उत्पन्न् हुए इस धराधाम पर अनेकों सदुगुणों को जहाँ मनुष्य ने स्वयं में आत्मसात किया है वहीं दुर्गुणों से भी उसका गहरा सम्बन्ध रहा है | मनुष्य में सद्गुण एवं दुर्गुण उसके पारिवारिक परिवेश एवं संस्कारों के अनुसार ही प्रकट होते रहे हैं | सम्मान , सदाचार , प्रेम , सहयोग आदि को सद्गुण तो व्यसन , ईर्ष्या , मात्सर्य एवं चोरी आदि को हमारे महापुरुषों ने दुर्गुण की संज्ञा दी है | जिन मनुष्यों के संस्कार उच्च श्रेणी के रहे हैं उन्होंने सद्गुणों को स्वयं में आत्मसात किया और जिनका पारिवारिक परिवेश अच्छा नहीं रहा है उन्हें दुर्गुणों ने अपने घेरे में ले लिया | कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि पारिवारिक परिवेश तो बहुत अच्छा होता है परंतु उसका एक सदस्य कुसंगति में पड़ करके अपने परिवार से बिल्कुल विपरीत कृत्य करने लगता है | सबसे घातक दुर्गुण चोरी को कहा गया है , चोरी करना जघन्य अपराध की श्रेणी में रखा गया है | पूर्वकाल में मनुष्य इन दुर्व्यसनों से दूर रहने का प्रयास किया करता था | परंतु धीरे-धीरे मनुष्य आधुनिक होता गया और उसके दुर्गुणों ने भी आधुनिकता ग्रहण कर लिया | आधुनिक युग में चोरी करने के नए-नए तरीके मनुष्य अपनाने लगा | आश्चर्य तो तब होता है जब समाज में उच्च पद पर आसीन होने पर भी वह अपने इन दुर्व्यसनों से मुक्ति नहीं पाता और समाज में अपने उच्च स्थान का ध्यान न रखकर इन दुर्व्यसनों में लिप्त रहता है | आज समाज में एक नवीन विधा देखने को मिलती है कि मनुष्य एक दूसरे के लेखों एवं रचनाओं को चुरा करके उसमें अपना नाम अंकित करके प्रस्तुत करने लगा है | इसे साहित्यिक चोरी का नाम दिया गया है | साहित्यिक चोरी किसे कहते हैं इसे हमारे आधुनिक विचारकों ने परिभाषित करते हुए बताया है कि जिस किसी दूसरे की भाषाशैली , उसके विचार उपाय आदि का अधिकांशत: नकल करते हुए अपनी मौलिक रचना के रूप में प्रस्तुत करना साहित्यिक चोरी की श्रेणी में आता है , और आज यह चोरी प्रतिदिन देखने को मिल रही है | ऐसा करके मनुष्य कितना बड़ा विद्वान बन जाएगा यह विचारणीय विषय है |*
*आज के आधुनिक युग में मनुष्य इंटरनेट के माध्यम से जन-जन तक पहुंचने का प्रयास कर रहा है | यह सत्य है कि पूर्वकाल की अपेक्षा आज इंटरनेट ने दुनिया की भाषा के साहित्य और लेखन को जनमानस के करीब और उनकी पहुंच में ला दिया है | जहां इससे इन लेखों के रचयिताओं की लोकप्रियता में वृद्धि हुई है वहीं इनकी साहित्यक चोरी भी बढ़ गई है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" आज समाज के उन प्रबुद्ध लोगों को देख रहा हूं जिन्हें लिखना तो नहीं आता परंतु सस्ती लोकप्रियता के कारण व अन्य लोगों / प्रसिद्ध लोगों की रचनाओं को तोड़ मरोड़ कर या फिर कई बार तो सीधे उनका नाम हटाकर खुद के नाम पर प्रचारित और प्रकाशित कर रहे हैं | किसी के विचारों को आत्मसात करके उस पर विचार प्रकट करना मनुष्य का स्वाभाविक कर्म एवं धर्म है परंतु यही कर्म साहित्यिक चोरी तब बन जाता है जब किसी के द्वारा लिखे गए साहित्य को बिना उसका संदर्भ दिए अपने नाम से मनुष्य प्रकाशित करता है | ऐसा करने वाले लोग नहीं समझ पाते हैं कि आज सूचना एवं प्रौद्योगिकी का विचार विस्तार इतनी तेजी से हुआ है की इन चोरों के अनैतिक कार्य आसानी से पकड़ में आ जाते हैं , परंतु यह लोग इतने बेशर्म होते हैं कि उनको ना तो अपने सम्मान का भय होता है और ना ही संविधान का | जिस प्रकार मनुष्य को अपने भौतिक संपदाओं को सुरक्षित रखने का अधिकार संविधान ने दिया है उसी प्रकार अपने साहित्य को सुरक्षित रखने के लिए "बौद्धिक संपदा अधिकार" मनुष्य को प्राप्त है | किसी भी लेख या रचना को बौद्धिक संपदा कहा गया है , परंतु आज के समाज में साहित्यिक चोरियां विशेषकर इंटरनेट पर बहुत साधारण सी बात हो गई है | इन चोरों के हौसले इतने बुलंद हैं कि वे लोगों की रचनाओं में कुछेक शब्दों का उलटफेर करके उसे प्रस्तुत कर देते हैं | ऐसा करके वे स्वयं के साथ घात तो कर ही रहे हैं साथ ही समय-समय पर समाज में असम्मानित भी होते रहते हैं | ऐसे महान लोगों को ईश्वर सद्बुद्धि प्रदान करे |*
*साहित्यिक चोरी करके मनुष्य कुछ देर के लिए स्वयं में विद्वता का गर्व तो कर सकता है परंतु वह स्वयं उन रचनाओं से अपने जीवन में कुछ भी ग्रहण नहीं कर पाता है और मूर्खता की पराकाष्ठा का परिचय जीवन भर देता रहता है |*