*मानव जीवन विचित्रताओं से भरा पड़ा है ! अपने जीवन काल में मनुष्य अनेक प्रकार के अनुभव करता हुआ उसी के अनुसार क्रियाकलाप करता रहता है | मानव जीवन को संवारने में सकारात्मकता का जितना हाथ है उसे बिगाड़ने में नकारात्मकता उससे कहीं अधिक सहयोग करती है | इन्हीं नकारात्मकता का ही स्वरूप है संदेह या शंका | किसी भी विषय पर यदि मनुष्य को संदेह हो गया तो वह लाख प्रयत्न करने के बाद भी उससे उबर नहीं पाता है | ऐसा नहीं है कि इस रोग से छुटकारा नहीं मिल सकता ! इससे छुटकारा पाने के लिए एक ही उपाय है सकारात्मक विचार करते हुए संदेहास्पद विषय की गहराई में जाकर सच्चाई जानना | संदेह इतना घातक होता है जिससे मधुर से मधुर सम्बन्ध तो बिगड़ते ही हैं साथ ही मनुष्य अपने जीवन को भी तिलांजलि दे देता है | विशेषकर जब इपनों पर किसी बात को लेकर संदेह हो जाता है तो यह जीवन को नारकीय कर देता है | इतिहास पुराणों में अनेकों कथानक देखने को मिलते हैं जहाँ एक संदेह ने जीवन परिवर्तित करते हुए प्रेममय वातावरण एवं जीवन को नष्ट कर दिया है | जब भगवान शिव ने श्री राम को सच्चिदानन्द कहकर प्रणाम किया तब सती जी को संदेह हो गया कि यह कैसा ब्रह्म है जो नारी के लिए रो रहा है | भगवान शिव ने बहुत समझाने का प्रयास किया परंतु वे नहीं मानीं और श्रीराम की परीक्षा लेने चली गयीं परिणामस्वरूप भगवान शिव ने उनका त्याग कर दिया और अन्ततोगत्वा उनका जीवन भी समाप्त हो गया | जब मस्तिष्क पर संदेह की परत जम जाती है तो मनुष्य को किसी की भी बात सही नहीं लगती और नकारात्मकता उसके मस्तिष्क पर इस प्रकार प्रभावी हो जाती है कि वह स्वयं दिशाहीन होकर वक्तन्य देने लगता है ! शंकालु व्यक्ति के जीवन के प्रत्येक कार्य उसी प्रकार होने लगते हैं | संदेह एक प्रकार का मानसिक रोग है जिसकी औषधि किसी भी चिकित्सक के पास नहीं है ! इसकी एक ही औषधि है सकारात्मकता |*
*आज हम वैज्ञानिक युग में जीवनयापन कर रहे हैं | आज मनुष्य ने चिकित्सा के क्षेत्र में भी सफलता प्राप्त करते हुए असाध्य से असाध्य रोगों पर विजय प्राप्त की है परंतु इतना विकसित होने के बाद भी संदेह की कोई औषधि नहीं बन पायी है | आज इस संदेह ने घरों को तोड़ना प्रारम्भ कर दिया है | मनुष्य सारे कार्य अपने अनुसार चाहता है | यदि पत्नी ने किसी से हंसकर बात कर ली तो पति को संदेह रहा है | यदि पति किसी से हंसकर बात कर लेता है तो पत्नी को अपने ही पति के चरित्र पर संदेह होने लगता है और फिर प्रारम्भ होती है एक मूक महाभारत | मित्र अपने मित्र पर , प्रेमी प्रेमिका पर , प्रेमिका प्रेमी पर संदेह करके सम्बन्ध बिगाड़ते दिख रहे हैं | आज तो संदेह रूपी संक्रमण ने परिवारों को तोड़ना प्रारम्भ कर दिया है | इसके कई उदाहरण समाज में देखने को मिल रहे हैं | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" इस विषय पर यही कहना चाहता हूँ कि किसी के भी प्रति अधिक शंकालु होना मानसिक रोग से अधिक कुछ नहीं है | इस प्रवृत्ति से मनुष्य एक दूसरे के जीवन में तांक झांक करने लगता है जबकि मनुष्य को यह समझना चाहिए कि हमारे तांक झांक करने से कुछ भी नहीं होने वाला है क्योंकि :- "हानि लाभ जीवन मरन जस अपजस विधि हाथ" | जीवन में संदेह का कोई स्थान नहीं होना चाहिए क्योंकि "होइहिं सोइ जो राम रचि राखा" इसलिए प्रत्येक मनुष्य को इस रोग से छुटकारा पाने के लिए सकारात्मकता अपनानी चाहिए | यदि किसी भी विषय पर कोई संदेह हो भी गया है तो अपना कार्य करते हुए उस विषय पर गहराई से मन्थन करते हुए परिणाम प्राप्त करके विषय को समाप्त कर देना चाहिए अन्यथा जीवन नारकीय होकर असमय समाप्त हो जाता है |*