*मानव जीवन में कुछ भी करने या लक्ष्य प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य संकल्पित हो | बिना दृढ़ संकल्प के कुछ भी नहीं प्राप्त किया जा सकता है | सनातन धर्म ने आदिकाल से संकल्प के महत्व को समझते हुए किसी भी धार्मिक कृत्य के प्रारम्भ करने के पहले संकल्प का विधान रखा है | बिना संकल्प लिए की गयी पूजा को सफल नहीं माना गया है | सनातन परम्परायें इतनी दिव्य एवं वैज्ञानिक रही हैं कि इसके जैसा उदाहरण ऐर कहीं देखने को मिलता ही नहीं है | जब किसी भी कार्य के लिए संकल्प लिया जाता है तो देश काल परिस्थिति के साथ - साथ साधक की स्थिति का वर्णन करते हुए उसके कुल / गोत्र एवं नाम का उच्चारण होने के साथ ही उसकी कामना को भी उच्चरित करके संकल्प बोलने का विधान सनातन परम्परा में रहा है | संकल्प में जो विवरण दिया जाता है वह साधक की स्थिति स्पष्ट करता है | संकल्प का अर्थ है प्रतिज्ञा करना | संकल्प लेने का अर्थ यह है कि हम इष्टदेव और स्वयं को साक्षी मानकर संकल्प लें कि यह पूजन कर्म विभिन्न इच्छाओं की पूर्ति के लिए कर रहे हैं और इस संकल्प को पूरा अवश्य करेंगे | संकल्प लेते समय हाथ में जल लिया जाता है | श्रीगणेश को सामने रखकर संकल्प लिया जाता है ताकि श्रीगणेश की कृपा से पूजन कर्म बिना किसी बाधा के पूर्ण हो जाय | इस परम्परा से हमारी संकल्प शक्ति मजबूत होती है | व्यक्ति को विपरित परिस्थितियों का सामना करने का साहस प्राप्त होता है | किसी भी संकल्प में मनुष्य की मन:स्थिति महत्वपूर्ण होती है यदि मन:स्थिति सकारात्मक नहीं है तो कोई भी संकल्प कार्य की सिद्धि नहीं कर सकता | इसलिए अपने संकल्प को पूर्ण करने के लिए मनुष्य को सर्वप्रथम अपने लक्ष्य के प्रति सकारात्मक होकर शुद्ध मानसिकता के साथ संकल्प लेना चाहिए जिससे कि उसका कार्य निर्विघ्न पूर्ण हो सके | व्यक्ति का जीवन उत्कृष्ट , आदर्शमय होगा या निकृष्ट होगा यह उसकी इच्छा , संकल्प अथवा विचार से ही निर्धारित होता है | हमारे शास्त्रों लिखा भी है कि :- “यन्मनसा चिन्तयति तद्वाचा वदति , यद्वाचा वदति तत् कर्मणा करोति , यत् कर्मणा करोति तदभिसंपद्यते” !! अर्थात :- जिस प्रकार का विचार व्यक्ति करता है उसका जीवन भी उस प्रकार का बन जाता है |*
*आज स्थिति परिवर्तित हुई है मनुष्य की मानसिकता ही किसी भी संकल्प में बाधा बन रही है | आज का संकल्प लेने तो बैठ जाता है परंतु उसका मन स्थिर नहीं रह पाता जिसके परिणामस्वरूप उसे किसी भी संकल्प का यथोचित परिणाम नहीं प्राप्त हो पा रहा है तो इसका मुख्य कारण है मनुष्य की मानसिकता | क्योंकि मनुष्य का मन ही उसका चालक होता है | मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि किसी भी संकल्प को पूरा करने के लिए सर्वप्रथम स्वयं के मन को तैयार करना होता है जब तक मनुष्य का मन सकारात्मक व शुभ विचारों से परिपूर्ण नहीं होगा तब तक संकल्प पूर्ण होने में सन्देह ही बना रहता है | "योगदर्शन" में लिखा भी है :- "मानसिक-बल-व्यतिरेकेण कः दंडकारण्यं शून्यं कर्तुम् उत्सहेत्” अर्थात :- मात्र शारीरिक कर्म के द्वारा कौन भला मानसिक बल के बिना दंडकारण्य को शून्य करने में समर्थ हो सकता है | संसार की सफलताओं का मूल मन्त्र है उत्कृष्ट मानसिक शक्ति , दृढ़ संकल्प शक्ति इसी की प्रबलता से संसार में व्यक्ति को कोई भी वस्तु अप्राप्य नहीं रह जाता | अपार धन- संपत्ति हो , चाहे उत्कृष्ट विद्या हो , समाज में प्रतिष्ठा हो वा मान-सम्मान हो सब कुछ इसी साधन के माध्यम से व्यक्ति प्राप्त कर लेता है | लौकिक सफलताओं के साथ-साथ संकल्प एक ऐसा आधार- स्तम्भ है जिसके द्वारा एक आध्यात्मिक व्यक्ति भी अपनी साधना क्षेत्र में सफल हो जाता है | यह एक ऐसी दिव्य विभूति है जिससे मनुष्य ऐश्वर्यवान् बन जाता और अकल्पनीय , अविश्वसनीय कार्यों को करते हुए सबको हतप्रभ कर देता है | संकल्प एक ऐसा कवच है जो कि धारण करने वाले को माता के समान सभी प्रकार के विपरीत अथवा विकट-परिस्थितिओं से निरन्तर रक्षा करता रहता है | इसलिए किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने के पहले संकल्प का महत्व है |*
*मनुष्य को सफलता तब नहीं मिलती है जब उसके कर्म में कोई दोष हो , कर्ता में कोई दोष हो अथवा साधनों में कोई दोष हो | अतः सर्वप्रथम स्वयं के दोषों को पहचानें और उनको दूर करने का प्रयत्न करें तभी हमारा संकल्प सफल हो पायेगा |*