*हमारे शास्त्रों में वर्णन मिलता है कि जीव जब मां के गर्भ में होता है तो उसे बड़ा कष्ट प्राप्त होता है | मां के गर्भ में जीव परमात्मा से प्रार्थना करता है कि हे भगवान हमें इस नरक से बाहर निकालिए मैं आपके प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए जीवन भर आपका भजन करूंगा , परंतु जन्म लेने के बाद वह ईश्वर को भूल जाता है | यदि गर्भस्थ शिशु कि उक्त प्रार्थना को ध्यान में रखा जाय तो मानव जीवन का परम उद्देश्य होता है परमात्मा का भजन एवं उनकी प्राप्ति , परंतु मनुष्य इस धरा धाम में आने के बाद माया के चक्कर में इस प्रकार पड़ जाता है कि वह अपने लक्ष्य से भटक जाता है और लक्ष्य से भटकने के कारण ही उसे अनेक प्रकार के दुखों का सामना करना पड़ता है | भगवान को प्राप्त करने के लिए मनुष्य को भक्ति का सहारा लेना पड़ता है क्योंकि भक्ति के बिना भगवान को नहीं प्राप्त किया जा सकता और भक्ति प्राप्त होना इतना सरल नहीं है | भक्ति प्राप्त करने के लिए मनुष्य को सद्गुरु की शरण में जाना पड़ता है | सद्गुरु कौन होता है ? वह संत होता है ! क्योंकि आपको शिक्षा वही दे सकता है जिसका मन निर्मल होगा | संतों के स्वभाव के विषय में गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं :- "संत हृदय नवनीत समाना" अर्थात संतों का हृदय मक्खन की तरह कोमल होता है | बिना संतकृपा के भक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती और बिना भक्ति के भगवान को नहीं प्राप्त किया जा सकता | भक्ति का प्राकट्य या भक्ति की प्राप्ति सद्गुरु / संत की शरण में जाकर नित्य सत्संग के सेवन से ही हो सकती है | इसके अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग नहीं है परंतु मनुष्य माया के बंधन में इस प्रकार फंस जाता है कि उसे ना तो सद्गुरु की शरण में जाने का अवसर मिलता है और ना ही वह संत कृपा प्राप्त कर पाता है | जिसके कारण उसे भक्ति की प्राप्त नहीं हो पति और वह चौरासी के चक्कर से छुटकारा नहीं प्राप्त कर पाता या इसे इस प्रकार भी कह लिया जाय कि मनुष्य मां के गर्भ में अपने किए हुए वादे को भूल जाता है और जब उसे दुख होता है तब वह संतो के पास दौड़ता है | यदि कष्ट पाने के बाद भी संत के पास जाया जाए तो भी भक्ति प्राप्त हो सकती है परंतु संत के पास जाने के बाद भी मनुष्य तब तक ही रुकना चाहता है जब तक उसे कष्ट से निवृत्ति का उपाय ना पता चल जाय | इस प्रकार न तो भक्ति की प्राप्त हो सकती है और ना ही जीव अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है |*
*आज अनेकों लोग पुस्तक पढ़कर , धर्म ग्रंथों का अध्ययन करके ज्ञानी तो बन गए हैं , आराधना / साधना भी कर रहे हैं परंतु उनके हृदय में भक्ति का प्रादुर्भाव नहीं हो पा रहा है | इसका कारण है कि उन्होंने संत की शरण नहीं ली है , सत्संग में कभी हिस्सा नहीं लिया है | आज का मनुष्य सत्संग को मनोरंजन का साधन मांनता है सत्संग में कही हुई बातों को अपने जीवन में धारण नहीं करना चाहता | जो लोग बिना संतकृपा के भक्ति की प्राप्ति कर लेना चाहते हैं उनसे मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" बताना चाहता हूं कि पुस्तक पढ़कर मनुष्य ज्ञानी तो हो सकता है परंतु ज्ञानी व्यक्ति भक्ति प्राप्त कर ही लेगा यह आवश्यक नहीं है | जिसे ज्ञानिनामग्रगण्यम् कहा गया है , जो साक्षात भगवान के चरणों में बैठते थे वह हनुमान जी भी भक्ति रूपी सीता जी को तब तक नहीं प्राप्त कर सके जब तक संत स्वरूप विभीषण ने उन्हें भक्ति प्राप्ति का मार्ग नहीं बताया | जब ज्ञानियों में अग्रगण्य हनुमान जी को विभीषण रूपी संत के मार्गदर्शन के बिना पूरी लंका में ढूंढने के बाद भी भक्ति रूपी माता सीता का दर्शन नहीं मिल पाया तो आज के ज्ञानियों की क्या बात की जाय | जो लोग यह विचार करते हैं कि मैं धर्म ग्रंथों का अध्ययन करके उसमें बताए गए उपायों का साधन करके भक्ति प्राप्त कर लूंगा और उस भक्ति के सहारे भगवान प्राप्त हो जाएंगे वह शायद दिवास्वप्न देख रहे हैं क्योंकि बिना संतकृपा के भगवत्कृपा नहीं हो सकती | इसलिए गर्भ में किए गए वायदे को पूर्ण करने के लिए भक्ति परम आवश्यक है और भक्ति प्राप्त करने के लिए सन्त की कृपा / सद्गुरु की कृपा परम आवश्यक है | मनुष्य को इस संसार में आने का प्रयोजन अवश्य समझना चाहिए और यह गूढ़ रहस्य जानने के लिए उसे सत्संग एवं सद्गुरु की कृपा की परम आवश्यकता होती है इसके बिना ना तो कुछ जाना जा सकता है और ना ही कुछ पाया जा सकता है |*
*भक्ति प्राप्त करने के लिए संत की कृपा एवं आशीर्वाद के साथ अववरत सतसमग की आवश्यकता होती है | इसके लिए प्रत्येक मनुष्य को कृतसंतल्प होने का प्रयास करना चाहिए |*