*सम्पूर्ण विश्व में प्राकृतिक छटा यदि कहीं देखने को मिलती है तो वह है हमारा गेश भारत | भारतीय मनीषियों ने सदैव प्रकृति की पूजा करके इसके संरक्षण पर ही बल दिया है | हमारा मानना रहा है कि धरती , जल , अग्नि , पवन एवं आकाश से मिलकर ही इस सृष्टि एवं मानव शरीर का निर्माण हुआ है | प्रकृति सदैव से हमारे लिए प्राणदायी रही है | विश्व के अन्य देशों की अपेक्षा हमारी प्रकृति संक्रमणरोधी रही है | अनेकों प्रकार के संक्रमण हमारी प्रकृति का स्पर्श पाकर नष्ट हो जाते थे | हमारे यहाँ की मिट्टी , गाय का गोबर , गोमूत्र एवं ताजी हवा अनेकों प्रकार के संक्रमणों का विनाश करने में सक्षम रहे हैं | द्वापर युग में प्राणलेवा संक्रमण के रूप में नवजात शिशुओं का वध करती धूम रही कंस की भेजी अनुचरी पूतना का जब बालकृष्ण ने वध किया तब माता यशोदा ने भगवान श्रीकृष्ण के शरीर में सबसे पहले ब्रजभूमि की मिट्टी लेपन किया फिर गाय का गोबर पूरे शरीर में मला तब गोमूत्र से स्नान करवाकर शुद्धजल से स्नान कराया ! क्योंकि आदिकाल से हमारे ऋषि - महर्षियों का मानना था कि हमारे यबाँ की मिट्टी अनेकों प्रकार के संक्रमण को मिटाने में सक्षम है | ऐसे अनेक उदाहरण हमें इतिहास - पुराणों में देखने को मिलते हैं जहाँ प्रकृति के भरोसे हमने बड़े से बड़े संकट पर विजय प्राप्त की है | पृथ्वी पर जीवन जीने के लिए शुद्ध वायु की परम आवश्यकता होती है इसीलिए हमारे पूर्वजों ने वृक्षों का आरोपण एवं उनके संरक्षण पर बल दिया था क्योंकि हमें शुद्ध प्राणवायु (ऑक्सीजन) मुफ्त में यदि कहीं से मिलती है तो वह हमारे जीवनदाता वृक्षों से ही मिलती है | परंतु हम अपने पूर्वजों की परिपाटी को भूल गये जिसके परिणामस्वरूप हम आये दिन अनेकानेक संकटों का सामना करने को विवश होते हुए असमय काल के गाल में समाहित होते जा रहे हैं |*
*आज विश्व एक विशाल संकट का सामना कर रहा है | विश्व के अन्य देशों की भांति ही हमारा देश भी एक घातक संक्रमण (कोरोनावायरस) से संक्रमित हो गया है जिसकी चपेट में आकर लोग अपने प्राण गंवा रहे हैं | इस संक्रमण ने अपने दूसरे प्रहार में इतना वीभत्स रूप धारण कर लिया है कि चारों ओर लोग भयाक्रान्त दिख रहे हैं | आज हमारी संक्रमणरोधी प्रकृति भी असहाय दिख रही है तो इसका एक ही कारण है कि आज के मनुष्य ने प्रकृति से स्वयं को बहुत दूर कर लिया है | आज तो हमारी वह स्थिति है कि न तो हम अपनी संस्कृति को ही सहेज पाये हैं और न ही आधुनिक ही हो पाये | बीच भंवर में पड़ा झूल रहा आज का भारतीय स्वयं को आधुनिक दिखाने के चक्कर में बहुत कुछ गंवाता चला जा रहा है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" यह कहने पर विवश हो रहा हूँ कि आज हम मिट्टी , गोबर , गोमूत्र , एवं वृक्षों से स्वयं को दूर करते जा रहे हैं और उसका दुष्परिणाम भी भूगत रहे हैं | हमने प्राणवायु प्रदान करने वाले वृक्षों का विनाश करना प्रारम्भ कर दिया है | आज धरती वृक्षविहीन होती जा रही है तो उसका कारण हम स्वयं हैं | आज पूरे देश में ऑक्सीजन के लिए हाहाकार मचा हुआ है | जो प्राणवायु हमें प्रकृति के द्वारा मुफ्त में में मिलती थी आज वह धन देने के बाद भी नहीं प्पाप्त हो पा रही है और लोग इसके अभाव में अपने प्राण गंवा रहे हैं | आज वैज्ञानिक भी गोबर एवं गोमूत्र को अनेकों संक्रमणों का विनाश करने में सक्षम मान रहे हैं परंतु हमें उनसे घिन आती है | यह अकाट्य सत्य है कि जिस समाज ने अपनी मूल संस्कृति से किनारा करने का प्रयास किया है वह कभी भी अधिक दिन तक विकासशील नहीं रह पायी है | आज आवश्यकता है कि हम अपने पूर्वजों की ही भाँति अपनी प्रकृति का संरक्षण करते हुए अपनी प्राचीन मान्यताओं की ओर लौटें जिससे कि अनेकों प्रकार के संक्रमणों से लड़ने की शक्ति हमें प्राप्त होती रहे |*
*आधुनिक होना कदापि गलत नहीं है परंतु आधुनिक बनने के चक्कर में अपनी मूल मान्यताओं से स्वयं को अलग करने का प्रयास करना गलत ही नहीं बल्कि घातक ही सिद्ध होता है |*