*मानव जीवन में शिक्षा का बहुत बड़ा महत्व है | शिक्षा प्राप्त किए बिना मनुष्य जीवन के अंधेरों में भटकता रहता है | मानव जीवन की नींव विद्यार्थी जीवन को कहा जा सकता है | यदि उचित शिक्षा ना प्राप्त हो तो मनुष्य को समाज में पिछड़ कर रहना और उपहास , तिरस्कार आदि का भाजन बनना पड़ता है | यदि शिक्षा समय रहते ना मिले तो फिर अंधेरे में भटकना और जीवन में ठोकरें खाना ही हाथ रह जाता है | सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि शिक्षकों एवं अभिभावकों को यह विचार करना चाहिए कि शिक्षा का उद्देश्य क्या होना चाहिए ? पहले इतने विद्यालय तो नहीं थे परंतु गुरुकुल आश्रमों की शिक्षा सुदृढ़ होती थी , बालक वहां से संस्कारी एवं विद्वान बनकर निकलता था | यदि मनुष्य के अंदर संस्कार हैं तो उसे जीवन के किसी भी क्षेत्र में पराजय का मुंह नहीं देखना पड़ेगा | हमारे गुरुकुल आश्रमों में विद्यार्थी के गुण , कर्म एवं स्वभाव का निर्माण करके उसमें संस्कार आरोपित करके किया जाता था | शिक्षा का उद्देश्य मात्र धनोपार्जन ना हो करके लोक कल्याणक होता था | मात्र वैदिक शिक्षा ही नहीं बल्कि बालकों को सांसारिक एवं औद्योगिक शिक्षा भी गुरुकुल आश्रमों में दी जाती थी इसके साथ ही अस्त्र शस्त्र चलाने की कला सिखाने की व्यवस्था भी प्राचीन गुरुकुल विद्यालयों में थी | छात्र को गुरुओं के द्वारा कठिन परीक्षा से भी दो-चार होना पड़ता था जिससे छात्र की मनोभूमि मजबूत होकर के समाज में उठ रही विकृतियों से लड़ने का साहस प्रदान करती थी | तब लोग अनाचार / कदाचार का विरोध करते हुए उसका दमन करने का प्रयास करते थे | हमारे गुरुकुल आश्रम की शिक्षा व्यवस्था बालक को उसकी रूचि के अनुसार किसी भी परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए तैयार करती थी | सबसे बड़ी परीक्षा होती है जीवन की , जीवन की कठिनाइयों में एक मनुष्य को कैसा आचरण करना चाहिए यह शिक्षा प्राचीन भारत के गुरुकुल आश्रमों में ही मिल सकती थी | यही कारण है कि गुरुकुल से निकले हुए छात्रों ने भारत देश की ध्वजा संपूर्ण विश्व में फहराते हुए भारत को विश्व गुरु बनने में सहयोग प्रदान किया था |*
*आज संपूर्ण विश्व ने बहुत प्रगति कर ली है | जीवन के हर क्षेत्र में मनुष्य नें सफलता के परचम लहराए हैं , इनसे शिक्षा क्षेत्र भी अधूरा नहीं है | आज अनेक प्रकार के आधुनिक संसाधनों के साथ छात्रों को शिक्षा तो प्रदान की जा रही है परंतु यदि यह कहा जाए कि आज की शिक्षा का लक्ष्य मात्र धनोपार्जन रह गया है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी | यह प्रवृत्ति कलियुग का प्रभाव है या आज की आवश्यक आवश्यकता यह विचारणीय विषय है | वैसे तो गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने मानस में बहुत पहले लिख दिया था कि :- मातु पिता बाल्कन्ह बोलावहिं ! उदर भरहिं सोइ धर्म सिखावहिं !! कलियुग में माता पिता अपने पुत्र को वही धर्म सिखाएंगे जिससे कि धनोपार्जन करके उदर की पूर्ति हो जाए | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" आज की शिक्षा व्यवस्था को देख रहा हूं जिसमें संस्कार एवं संस्कृति का लोप होता जा रहा है | एक नौनिहाल को संस्कारी एवं शिक्षित बनाने के लिए जितना दायित्व शिक्षक का है उससे कहीं अधिक अभिभावक का भी होता है , क्योंकि विद्यार्थी दोनों ही वातावरण में पलता रहता है | परंतु आज अभिभावक अपने बच्चों को समय नहीं दे पा रहे हैं जिसके कारण विद्यालय में प्राप्त होने वाली शिक्षा बालक को तो प्राप्त हो जाती है परंतु घर से मिलने वाले संस्कारों से वह वंचित हो जाता है | यही कारण है कि आज समाज में अनेक प्रकार की विकृतियाँ देखने को मिल रही हैं | किसी भी मनुष्य का संस्कारी होना उतना ही आवश्यक है जितना कि उसका जीवन जीना ! बिना संस्कार के मनुष्य पशु के समान ही जीवन व्यतीत करता है | यह दुखद है कि आज विद्यालयों में शिक्षा की उचित व्यवस्था तो देखने को मिलती है परंतु संस्कार कहीं भी देखने को नहीं मिल रहे , जिसका परिणाम आज स्पष्ट देखा जा सकता है |*
*बालकों में शिक्षा के साथ-साथ संस्कारों का आरोपण होते रहना चाहिए अन्यथा आने वाला समय कैसा होगा यह सोचकर ही हृदय कम्पित हो जाता है |*