*इस संसार में प्राय: दो शब्द सुनने को मिलते हैं शिक्षा एवं दीक्षा | शिक्षा एवं दीक्षा मानव जीवन की दिशा एवं दशा परिवर्तित करने में सक्षम होती है | जहाँ शिक्षा का अर्थ होता है ज्ञानार्जन करना वहीं दीक्षा का अर्थ दिशा प्राप्त करना बताया गया है | पूर्वकाल में गुरु के द्वारा पहले शिष्य की योग्यता के अनुसार दीक्षा देकर दीक्षित किया जाता था तब वह ज्ञान प्राप्त करके शिक्षित होने का अधिकार प्राप्त करता था | दीक्षा अर्थात संस्कार ! प्राचीन समय में गुरु अपने शिष्यों के अंतर में छिपी दिव्यता को उजागर करने के लिए उपदेशों का सहारा लिया करते थे | यही दिव्यता छात्र के सर्वांगीण विकास में सहायक होती थी | गुरु उसकी आत्मा में छिपे सत्य को खोजने का प्रयास किया करते थे | इस कारण प्राचीन समय में गुरु शिष्य को दीक्षा दिया करते थे , ताकि उसके जीवन में स्थायी सुख-शांति प्राप्त हो | दीक्षा आत्मा का आहार हुआ करती थी | दीक्षा प्राप्त करने के पश्चात शिष्य अपने ज्ञान के द्वारा वे सभी जीवन मूल्य विकसित करता था , जिससे वह समाज में अपना योगदान दे सके | सुमार्ग पर चल कर कुमार्गगामियों को सत्य की राह दिखला सके | उस समय की शिक्षा चरित्र निर्माण की शिक्षा थी | मनुष्य अपवे शिक्षा के स्तर में वृद्धि करके अनेकों उपाधियाँ लेकर विद्वान तो बन सकता है परंतु यदि उसके पास दीक्षा (संस्कार) का अभाव है तो वह शिक्षा जन कल्याणकारी कभी नहीं हो सकती | हमारे सनातन धर्म में इसीलिए वटुक को पहले उपनयन संस्कार के माध्यम से दीक्षित किया जाता था तब उसको शिक्षा अर्थात वेदाध्ययन का अधिकार मिलता था | यह गुरु का कर्तव्य एवं एवं दायित्व होता था कि अपने शिष्य को दीक्षा के द्वारा परिमार्जित करते तब उसको शिक्षा अर्थात ज्ञान प्रदान किया जाता था | शिष्य को दी जाने वाली शिक्षा के दो पक्ष कहे गये हैं पहला बाह्य पक्ष , दूसरा आंतरिक | आंतरिक पक्ष को ही दीक्षा कहा गया है इसके द्वारा शिष्य के अंदर उपस्थित सत्य , धर्म , शांति , प्रेम और अहिंसा के पवित्र जीवन मूल्यों को प्रकट किया जाता है | इन मूल्यों को बाहर से प्राप्त नहीं किया जा सकता | इसके विपरीत बाह्य पक्ष का संबंध बाह्य जगत की शिक्षा से होता है , जो कि पुस्तकीय ज्ञान के अतिरिक्क कुछ नहीं होती है | शिक्षा एवं दीक्षा में यह विशाल अन्तर है |*
*आज के आधुनिक युग में शिक्षा का विस्तार तो खूब हो रहा है परंतु दीक्षा का अभाव होने के कारण मानव संस्कार लुप्त होते जा रहे हैं | मनुष्य का शैक्षिक स्तर तो बढ़ गया परन्तु वर्तमान समय की शिक्षा का सबसे बड़ा दोष यही है कि वह छात्र की आध्यात्मिक शक्तियों को जाग्रत नहीं कर पा रही है , क्योंकि शिक्षक भी अंत:करण का महत्व नहीं समझते | वे शिक्षा को जीविकोपार्जन का ही साधन मानते हैं | जो शिक्षा अंत:करण के विकारों का नाश करके सभी प्रकार के मानस रोगों का शमन करने वाली हुआ करती थी , वह मात्र जीविकोपार्जन के कारण बाह्य पुस्तकीय ज्ञान की सीमित परिधि में फंस कर रह गई है | इस कारण वह अंतरात्मा की विषय वस्तु न होकर बाह्य भौतिक जगत के विविध प्रकार के सुखों का साधन बनती जा रही है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" विचार करता हूँ कि हमारी प्रचीन शिक्षा पद्धति कितनी दिव्य थी जहाँ शिक्षा से अधिक दीक्षा का महत्त्व था आज के शिक्षित व्यक्ति को आम याद रह गया परन्तु वह राम को भूल जा रहा है | जहाँ प्राचीन समय की शिक्षा एवं दीक्षा आत्मसम्मान का भाव पैदा करती थी वहीं वर्तमान शिक्षा हमारी अहंकारी प्रवृत्तियों को बढ़ा रही है क्योंकि आज की शिक्षा में दीक्षा का अभाव है | प्रत्येक पढ़ा-लिखा विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात धनवान बनने की होड़ में हवस का शिकार होता चला जाता है | वह धन की तीव्र लालसा के वशीभूत होकर अंदर छिपी अक्षय शक्तियों की उपेक्षा करता है और अनैतिक तरीकों से धन कमाता हुआ अपने जीवन मूल्यों को खोता चला जाता है | आज की दीक्षाविहीन शिक्षा मात्र धनोपर्जन का साधन बनकर रह गयी है यही कारण है कि आज संस्कार लुप्तप्राय होते जा रहे हैं |*
*आज पुन: आवश्यकता है कि विद्यार्थियों को अपने देश , अपने लोग और अपनी संस्कृति के प्रति गर्व का अनुभव करने की शिक्षा मिलनी चाहिए | उन्हें यह समझना चाहिए कि चरित्र के बिना धन और बल मूल्यहीन हैं | और यह भाव दीक्षा के द्वारा ही प्रकट किया जा सकता है |*