- *भारतीय संस्कृति में जन जन का यह अटूट विश्वास है कि जीवन चक्र सदैव चलता रहता है , मृत्यु के बाद भी जीवन की समाप्ति नहीं होती क्योंकि सनातन परंपरा में मृत्यु कों भी जीवन की एक कड़ी के रूप में देखा जाता है , इसीलिए मृतक के संबंध में यह कामना की जाती है कि वह अगले जन्म में सुसंस्कारवान तथा ज्ञानी बने | इस निमित्त जो कर्मकांड किए जाते हैं वह जीवात्मा को श्रद्धा से किए गए श्राद्ध आदि के द्वारा मिलता है | मरणोत्तर संस्कार अर्थात श्राद्ध कर्म से मृतात्मा का तर्पण किया जाता है जिससे आत्मा प्रसन्न रहें और उन्हें शांति मिले | इस समय पितृपक्ष चल रहा है इन सोलह दिनों में श्राद्ध कर्म का आयोजन घर घर में होता है | वैसे तो देखने में मरने के बाद आत्मा का इस संसार में जीवन समाप्त हो जाता है परंतु सनातन धर्म का ऐसा मानना है कि परिजनों के द्वारा किए गए श्रद्धा एवं विश्वास के साथ श्राद्ध कर्म , पिंड के ऊपर गिरी भी जल की बूँदें जीवात्मा को तृप्त करती हैं | इन्हीं से उनका पोषण होता है | यदि किसी की बाल्यकाल में ही मृत्यु हो गई तो उनकी तृप्ति जल मार्जन से होती है | श्राद्ध में श्राद्धकर्ता की श्रद्धा एवं भावना ही मुख्य होती है इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि परिवार के लोग काम , क्रोध , लोभ , मोह एवं अहंकार से दूर रहकर श्राद्ध कर्म जैसा पुनीत कार्य करें | श्राद्ध कर्म में खर्च किया जाने वाला धन ईमानदारी की कमाई का होना चाहिए | अपने पितरों को पवित्र मन से तर्पण करने हेतु दो ही दिन पवित्र माने गए हैं एक मृतक की मृत्यु तिथि और दूसरा श्राद्ध के पुनीत अवसर जिस दिन को मृतात्मा देवलोक में गई हो | श्रद्धा से किया गया कर्म ही श्राद्ध कर्म कहलाता है | बिना श्रद्धा के पितरों के प्रति किया गया कर्म दिखावा मात्र बनकर रह जाता है और अनेक अनुष्ठान करने के बाद भी परिजनों को पितृदोष से मुक्ति नहीं मिलती |*
- *आज की आधुनिकता में मनुष्य के पास इतना समय नहीं बचा है कि वह अपने माता पिता के साथ बिताए हुए सुखद पलों को याद भी कर सके | श्राद्ध कर्म एवं पितरों से संबंधित किसी भी कर्म को आज लोग धार्मिक अनुष्ठान मानने लगे हैं | कुछ लोग तो ऐसे भी जो इसे अंधविश्वास मान करके हंसी भी उड़ाते हुए देखे जा सकते हैं | जबकि मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि जो लोग आधुनिक हो गए हैं वह पितृपक्ष को धार्मिक अनुष्ठान न मानकर के अपने अतीत अथवा अपने पूर्वजों को श्रद्धा से स्मरण करते हुए परिवार सहित यह उत्सव अवश्य मना सकते हैं | अपने पूर्वजों के नाम पर बिना किसी दबाव बिना किसी विवशता के श्रद्धा पूर्वक उनके निमित्त दान तो कर ही सकते हैं | परिजनों के द्वारा जब पितरों के निमित्त श्रद्धा पूर्वक कोई दान किया जाता है तो पितरों को असीम शांति प्राप्त होती है | ऐसा करके परिजन भी स्वयं को कृतार्थ मानते हैं | परंतु आज चाहे श्राद्ध कर्म हो हो या फिर कोई भी पूजा - अनुष्ठान अधिकतर लोग उसको भार समझकर निपटाने का प्रयास करते हैं , यही उनकी भूल है | जिन पूर्वजों की अपार संपत्ति पर आज हम ऐश्वर्य भोग रहे उनके प्रति श्रद्धा का भाव न होना या उनके लिए श्राद्ध कर्म आदि न करना मनुष्य की कृतघ्नता एवं विकृत मानसिकता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है | श्राद्ध पक्ष के पावन दिनों में अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता का भाव प्रकट करते हुए श्रद्धा के साथ तर्पण मार्जन एवं पिंडदान अवश्य करना चाहिए | ऐसा करने पर पितरों की कृपा प्राप्त होती है और मनुष्य सुख का उपयोग करता है अन्यथा परिवार में अनेक प्रकार की व्याधियों उत्पन्न होने लगती हैं | इन व्याधियों से बचने के लिए मनुष्य को समय-समय पर अपने पितरों के लिए श्राद्धादि अवश्य करते रहना चाहिए |*
- *श्राद्ध पक्ष में श्रद्धा पूर्वक अपने पितरों को याद करना मात्र एक अनुष्ठान नहीं बल्कि स्वस्थ जीवन की परिकल्पना एवं अनुभव है | आज की युवा पीढ़ी को इन कर्मों का अभ्यास अवश्य करना चाहिए |*