*आदिकाल से भारतीय जीवन पद्धति में विवाह को एक महत्वपूर्ण संस्कार माना गया था जिससे मनुष्य गृहस्थ धर्म में प्रवेश करता था | विवाह को सिर्फ दो शरीरों का मिलन ना मान करके दो संस्कृतियों का मिलन माना जाता था , जिससे समाज में आपसी रिश्ते मजबूत होते थे | सनातन संस्कृति में विवाह को सात जन्मों का पवित्र बंधन माना जाता था | पूर्वकाल में वैवाहिक संबंधों पर गहनता से विचार करके तब संबंध बनाए जाते थे , वैवाहिक संबंध बनाने के पहले दोनों कुलों में समानता देखी जाती थी | समान क्या होना चाहिए ? इस पर भी विचार किया जाता था :- संपन्नता , संपत्ति , घर , वर एवं कन्या के अतिरिक्त कुलों में भी संपन्नता एवं समानता देखी जाती थी | यही कारण है के पूर्वकाल के वैवाहिक संबंध स्थाई होते थे | जहां समानता होती है वहां वर एवं कन्या दोनों को एक दूसरे से कोई शिकायत नहीं होती | सबसे बड़ी बात यह थी कि विवाह संबंध जोड़ने की जिम्मेदारी अभिभावकों की होती थी , विवाह के सारे निर्णय अभिभावक बहुत ही सुक्ष्मता से विचार करके तथा वर एवं कन्या की उचित जोड़ी देखकर कब लिया करते थे , जिससे समाज में वैवाहिक संबंध एक संस्कार के रूप में स्थापित होते थे और इनके जीवन में कड़वाहट एवं वैमनस्यता नहीं देखने को मिलती थी | यदि ऐसा कहीं होता भी था तो घर के बड़े - बुजुर्ग बैठकर पति पत्नी को समझाकर उनकी समस्याएं दूर कर दिया करते थे और वैवाहिक दंपत्ति अपने ज्येष्ठ - श्रेष्ठों का सम्मान करते हुए उनकी बात मान लिया करते थे | यही कारण है कि पूर्व काल में वैवाहिक संबंध विच्छेद बहुत कम देखने को मिलता था ! दम्पत्ति छोटी - छोटी बात पर उत्पन्न हुई कड़वाहट को प्रेम से दूर कर लिया करते थे |*
*आज पूरा समाज आधुनिकता की चपेट में है , विवाह को संस्कार मानना जैसे आज की युवा पीढ़ी ने सीखा ही नहीं है | आज जितने वैवाहिक जोड़े घरों में देखने को मिलते हैं उनसे कहीं अधिक वैवाहिक जोड़े संबंध विच्छेद के लिए न्यायालय के चक्कर काटते हुए दिखाई पड़ रहे हैं | ऐसा क्या हो गया जिससे कि विवाह संस्कार एक संस्कार एवं मर्यादा न होकर के मात्र कुछ दिन का संबंध बन कर रह गया है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" इन कारणों पर विचार करता हूं तो यही परिणाम निकलता है कि आज अधिकतर वैवाहिक संबंधों में अभिभावकों की भूमिका ही नहीं रह गई है | युवक एवं युवतियां क्षणिक शारीरिक आकर्षण में फंसकर स्वयं विवाह संबंध बनाने की जिम्मेदारी उठा रहे हैं | इन सम्बन्धों को अंधे प्रेम का नाम देकर न घर की समानता देखी जा रही है , न वर / कन्या की समानता देखी जा रही है और ना ही कुल एवं संपन्नता की समानता देखी जा रही है , सीधी बात है कि जहां असमानता होती है वही संबंध विच्छेद की स्थिति बनती है क्योंकि कोई भी आकर्षण कुछ दिनों तक ही रह सकता है | आकर्षण के समाप्त होते ही एक दूसरे में अनेक प्रकार की कमियां दिखाई पड़ने लगती हैं और यह कमियां धीरे-धीरे संबंध विच्छेद का कारण बनते हुए न्यायालय तक पहुंच जाती है | पति यदि संपन्न हो गया और पत्नी निर्धन परिवार से हैं या पति साक्षर एवं पत्नी निरक्षर है तो वह अपनी पत्नी का सम्मान नहीं करना चाहता बात बात पर उसको अपमानित करता रहता है और वही यदि पत्नी संपन्न हो गई और पति निर्धन है या पत्नी को कोई नौकरी मिल गई और पति बेरोजगार है अथवा पत्नी साक्षर एवं पति निरक्षर है तो पत्नी की दृष्टि में पति का सम्मान कम होने लगता है और अंततोगत्वा स्थिति संबंध विच्छेद तक पहुंच जाती है | विचार कीजिए कि क्या विवाह के पहले पति या पत्नी निरक्षर नहीं थे ? यह साक्षरता एवं निरक्षरता तो विवाह करने के पहले ही देख लेना चाहिए जिससे कि भविष्य में कोई समस्या न हो | कहने का तात्पर्य यह है वैवाहिक संबंध सदैव समानता में ही होते आए हैं और इस सामाजिक समस्या को तभी रोका जा सकता है जब इसकी बागडोर पुनः अभिभावकों के हाथों में जाएगी अन्यथा आए दिन यह समस्या विकराल ही होती जायेगी |*
*जहां समानता होती है वहां पति पत्नी एक दूसरे का सम्मान करते हैं और जहां असमानता होती है वहां अहम भाव प्रकट हो जाता है और एक दूसरे का निरादर करने की प्रवृत्ति बढ़ने लगती है | इस मानसिक दुष्प्रवृति को रोकने का एक ही उपाय है कि विवाह सदैव घर , वर , साक्षर - निरक्षर एवं कुल अपने अनुरूप होने पर ही किया जाय |*