*सनातन धर्म में श्राद्ध के साथ पितरों को अपनी श्रद्धांजलि / तिलांजलि देकर अपनी श्रद्धा समर्पित करने का विधान है ! श्राद्ध किये बिना मनुष्य सुखी नहीं रह सकता ! श्राद्ध करने के अनेक विधान बताये गये हैं अपनी सामर्थ्य के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपने पितरों के लिए श्राद्ध अवश्य करना चाहिए ! समाज में कोई गरीब है तो कोई अमीर | सभी बराबर नहीं हैं ! धनवानों को भव्यता के साथ श्राद्ध करते हुए देखकर निर्धन अपने मन में विचार करता है कि :- श्राद्ध करने का विधान बड़ा भव्य है अर्थात् मैं तो श्राद्ध कर ही नहीं सकता ! सनातन धर्म सबको साथ लेकर चलने वाला संविधान है यहाँ यदि श्राद्ध का विस्तृत विधान दिया गया है तो निर्धनता में भी श्राद्ध निष्पादित किये जाने के लिए मार्गदर्शन दिया है | यदि कोई भव्यता से श्राद्ध करने की स्थिति में नहीं है तो वह क्या करे ? अपने परिश्रंम कमाए गए धन से शाक खरीद लाये और उससे श्राद्ध करें | यदि परिश्रम से धन नहीं मिलता है तो घास एवं लकड़ी बेचकर के धन इकट्ठा करके श्राद्ध करें | कभी-कभी ऐसी परिस्थिति हो जाती है की लकड़ी का मिलना भी मुश्किल हो जाता है ऐसी परिस्थिति मनुष्य को चाहिए कि जंगल से हरी घास काट लाये और अपने पितरों का ध्यान करके उसे गाय को खिला दे | इस प्रकार श्राद्घ को निष्पादित करें | यदि घास भी ना मिले , कोई भी साधन उपलब्ध हो तो भी मनुष्य को अपने पितरों के प्रति श्रद्धा का समर्पण करना चाहिए | ऐसी स्थिति में बताया गया है मनुष्य कुतपकाल आने पर एकान्त में चला जाय और सूर्य की ओर मुंह करके दोनों हाथ ऊपर उठाकर अपने पितरों के नाम से दो आंसू गिरा दे और प्रार्थना कर ले कि मेरे पास कोई साधन नहीं है अत: हम अपनी श्रद्धा श्राद्घ के रूप में आपको समर्पित करता हूं | कहने का तात्पर्य है कि किसी भी प्रकार से अपने पितरों के प्रति श्राद्ध अवश्य करना चाहिए |*
*आज के आधुनिक युग में मनुष्य आधुनिकता की चकाचौंध में इस प्रकार चुंधिया गया है कि उसे अपने धर्म - कर्म भी नहीं दिख रहे हैं ! जिन पितरों की सम्पत्ति पर वह सुख भोग रहा है उन्हीं पितरों के लिए कुछ भी नहीं करना चाह रहा है ! यद्यपि वह इसका दुष्परिणाम अनेकों प्रकार से भोगा करता है फिर भी उसकी आँखें नहीं खुलती हैं ! भव्यता के श्राद्ध करने वालों में भी पितरों के प्रति श्रद्धा कम और समाज में दिखावा अधिक होता है ! धन की दुहाई देकर श्राद्ध न करने वालों से मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" बताना चाहूँगा कि पितर आपके धन के भूखे नहीं है धन तो वे आपके लिए छोड़कर चले ही गये हैं अब पितरोंं को आपकी श्रद्धा चाहिए बस ! परंतु आज जिस समाज में जो सन्तानें अपने जीवित माता - पिता को दुत्कार रही हैं वे उनके मरने के बाद कौन सी श्रद्धा लेकर उनका श्राद्ध करेंगी ? यह यक्षप्रश्न है | ऊपर बताया गया है कि श्राद्ध करने के लिए धन का होना बहुत आवश्यक नहीं है परंतु आज दिखावा एवं देखा - देखी का युग है ! दूसरों की भव्यता देखकर मन में हीन भावना से ग्रसित लोग श्राद्घकर्म का त्याग करते देखे जा रहे हैं ! गौमाता में सभी देवताओं एवं पितरों का वास माना गया है ! जब यहाँ तक व्यवस्था दी गयी है कि अपने पास कुछ न होने पर श्राद्ध वाले दिन कुतपकाल में हरी घास काटकर पितरों के नाम पर श्रद्धापूर्वक गाय को खिलाने मात्र से श्राद्ध का फल मिल जाता है फिर भी मनुष्य यह श्राद्ध नहीं निष्पादित कर पा रहा है ! श्राद्ध न करने के कारण अनेकों प्रकार के दुष्परिणाम भोगने के बाद भी मनुष्य को अपने पितरों की याद नहीं आती तो यह उनका दुर्भाग्य ही कहा जायेगा !*
*पितरों को भुलाकर अनेक व्याधियों से ग्रसित होकर विद्वानों/तांत्रिकों के यहाँ का चक्कर लगाने वाले यदि श्रद्धा से समय समय पर श्राद्ध करते रहें तो शायद उनको यह चक्कर न लगाना पड़े |*