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*‼️ भगवत्कृपा हि केवलम् ‼️*
🚩 *सनातन परिवार* 🚩
*की प्रस्तुति*
🌼 *वैराग्य शतकम्* 🌼
🌹 *भाग - चालीसवाँ* 🌹
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*गताँक से आगे :---*
*मोहं मार्जयतामुपार्जय रतिं चन्द्रार्धचूडामणौ*
*चेतः स्वर्गतरङ्गिणीतटभुवामासङ्गमङ्गीकुरु !*
*को वा वीचिषु बुद्बुदेषु च तडिल्लेखासु च स्त्रीषु च*
*ज्वालाग्रेषु च पन्नगेषु च सरिद्वेगेषु च प्रत्ययः !! ६० !!*
*अर्थात् :-* ऐ चित्त ! तू मोह छोड़कर शिर पर अर्धचन्द्र धारण करनेवाले भगवान् शिव से प्रीति कर और गंगा किनारे के वृक्षों के नीचे विश्राम ले | देख ! पानी की लहार, पानी के बबूले, बिजली की चमक, आग की लौ, स्त्री, सर्प और नदी के प्रवाह की स्थिरता का कोई विश्वास नहीं; क्योंकि ये सातों चञ्चल हैं |
*अपना भाव :-*
मनुष्यों ! *आप लोग मोह निद्रा में पड़े हुए क्यों अपनी दुर्लभ मनुष्य-देह को वृथा गँवा रहे हैं ?* आपको यह देह इसलिए नहीं मिली है कि, आप इस झूठे संसार से मोह कर, स्त्री पुरुष और धन-दौलत में भूले रहे; बल्कि इसलिए मिली है कि आप इस देह से दुर्लभ मोक्ष पद की प्राप्ति करें | पर संसार की गति ही ऐसी है कि वह अच्छे कामों को त्याग कर बुरे काम करता है । कारण यह है कि मोहान्ध अज्ञानी पुरुष को अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं |
धन के मोह में पड़े लोग अनुचित उचित का विचार करने का सामर्थ्य खो देते हैं | काम पीड़ित कामी पुरुष स्त्री के मोह में परिवार का त्याग कर देते हैं ! अपने बूढ़े माता को ठुकरा देते हैं क्योंकि *स्त्री, कामी पुरुष को ज़रा से लालच से अपना दास बना लेती है | कामी पुरुष स्त्री के इशारे पर उसी तरह नाचता है, जिस तरह बन्दर मदारी के इशारे पर नाचता है | वह रात-दिन उसे खुश करने की कोशिशों में लगा रहता है, घर-बाहर, सोते-जागते उसी की चिन्ता करता है, उसी के लिए धन-गर्वित धनियों की खुशामदें करता, उनकी टेढ़ी-सूधी सुनता और आत्मप्रतिष्ठा खोता है |*इस प्रकार के कामी पुरुषों से स्त्री तब तक प्रेम करती है जब तक उनके पास धन होता है | दरिद्र या धनहीन हो जाने के बाद वही चंचला स्त्री कामी पुरुषों का त्याग कर देती है |
*संसार में सबका अपना स्वार्थ है बिना स्वार्थ के अब प्रेम बहुत कम ही देखने को मिलता है*
*लिखा है :--*
*माता निन्दति नाभिनन्दति पिता भ्राता न सम्भाषते*
*भृत्यः कुप्यति नानुगच्छति सुतः कान्ता च नालगते !*
*अर्थप्रार्थनशंकया न कुरुतेऽप्यालापमात्रं सुहृत*
*तस्मादर्थमुपार्जयस्व च सखे ! ह्यर्थस्यसर्वेवशाः !!*
*अर्थात्:- माता निर्धन पुत्र की निन्दा करती है, बाप आदर नहीं करता, भाई बात नहीं करता, चाकर क्रोध करता है, पुत्र आज्ञा नहीं मानता, स्त्री आलिंगन नहीं करती और धन मांगने के डर से कोई मित्र बात नहीं करता; इसलिए मित्र धन कमाओ, क्योंकि सभी धन के वश में हैं |
*"आत्मपुराण" में कहा गया है -*
*दरिद्रं पुरुषं दृष्ट्वा नार्यः कामातुरा अपि !*
*स्प्रष्टुं नेच्छन्ति कुणपं यद्वच्चकृमिदूषितं !!*
*अर्थात्:-* स्त्रियां काम से आतुर होने पर भी, दरिद्री पति को छूना पसन्द नहीं करती; जिस तरह कीड़ों से दूषित मुर्दे को कोई छूना नहीं चाहता | उसी प्रकार धनहीन के पास कोई जाना नहीं चाहता |
वास्तव में स्त्री-पुत्रादि शत्रु हैं, पर पुरुष अज्ञानता से इन्हे अपना मित्र समझता है | *जगदगुरु शंकराचार्य ने अपनी प्रश्नोत्तर माला में लिखा है - "स्त्री-पुत्र देखने में मित्र मालूम होते हैं, पर असल में वे शत्रु हैं |*
संसार को मिथ्या समझकर ही कोई ज्ञानी कहता है - *"हे मन ! तू स्त्री के प्रेम में मत भूल; यह बिजली की चमक, नदी के प्रवाह और नदी की तरंग प्रभृति की तरह चञ्चल है | स्त्री के प्रेम का कोई ठिकाना नहीं; आज यह तेरी है, कल पराई है | एक करवट बदलने में स्त्री पराई हो जाती है | इसकी झूठी प्रीति में कोई लाभ नहीं |*
*गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं -*
*उरग तुरग नारी नृपति, नर नीचे हथियार !*
*तुलसी परखत रहब नित, इनहिं न पलटत बार !!*
*अर्थात्:-* सर्प, घोडा, स्त्री, राजा, नीच पुरुष और हथियार - इनको सदा परखते रहना चाहिए, इनसे कभी निश्चिन्त नहीं रहना चाहिए, क्योंकि इन्हें पलटते देर नहीं लगती |
*हे मन ! यदि तुझे प्रीति ही करनी है, तो उठ गंगा के किनारे वृक्षों के नीचे चल बैठ और आशुतोष भगवान् चन्द्रशेखर - शिवजी से प्रीति कर | उनकी प्रीति सच्ची और कल्याणकारी है |*
गोस्वामी जी ने और भी कहा है -
*कै ममता करु रामपद, कै ममता करु हेल !*
*"तुलसी" दो मँह एक अब, खेल छाँड़ि छल खेल !!*
*सम्मुख ह्वै रघुनाथ के, देइ सकल जग पीठि !*
*तजै केंचुरी उरग कहँ, होत अधिक अति दीठि !"*
*अर्थात् :-* या तो भगवान् के चरणों में ममता कर अथवा देह के सब नातों को त्यागकर उदासीन हो जा और कर्म ज्ञानादि साधन करके मन को शुद्ध कर ले | *जब तेरा मन शुद्ध हो जाएगा, तब भगवान् के चरणों में आप ही स्नेह हो जाएगा |* इन दोनों बातों में से जो एक बात तुझे पसन्द हो, उसे छल छोड़ कर दिल से कर; एक खेल खेल | *सारांश यह, कि* भगवान् में सहज स्नेह कर | अगर तेरा मन प्रभु की भक्ति में नहीं जमता तो स्त्री-पुत्र आदि संसारी भोगों से मन हटाकर प्रभु की भक्ति की चेष्टा कर |
*जब भगवान् में तेरा मन लग जाए, तब संसार की तरफ से मुंह फेर ले - संसार को पीठ दे दे, जिससे तेरे मन में लोक-वासना न आने पावे; क्योंकि वासना से ह्रदय की दृष्टी मैली हो जाती है |* सांप का भीतरी चमड़ा जब मोटा हो जाता है, तब उसे आँखों से साफ़ नहीं दीखता, लेकिन जब वह कांचली छोड़ देता है, तब उसकी आँखों का पटल उतर जाता है; आँखों के साफ़ हो जाने से सांप को खूब साफ़ दिखने लगता है | *जिस तरह कांचली त्यागने से सर्प की दृष्टी साफ़ हो जाती है; उसी तरह वासना त्याग देने से ईश्वर के भक्तो की ह्रदय-दृष्टी साफ़ रहती और उन्हें भगवान् के दर्शन होते रहते हैं |*
*किसी ने कहा है:-*
*मोह छाँड़ मन-मीत ! प्रीति सों चन्द्रचूड़ भज "*
*सुर-सरिता के तीर, धीर धार दृढ़ आसन सज !!*
*शम दम भोग-विराग, त्याग-तप को - तू अनुसरि !*
*वृथा विषय-बकवाद, स्वाद सबहि - तू परिहरि !!*
*थिर नहि तरंग, बुदबुद, तड़ित, अगिन-शिखा , पन्नग, सरित !*
*त्योंही तन जोवन धन अथिर, चल दलदल कैसे चरित !"*
*शेष अगले भाग में:--*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
प्रवक्ता
श्रीमद्भागवत/श्रीरामकथा
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्याजी
(उत्तर-प्रदेश)
9935328830
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