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*‼️ भगवत्कृपा हि केवलम् ‼️*
🚩 *सनातन परिवार* 🚩
*की प्रस्तुति*
🌼 *वैराग्य शतकम्* 🌼
🌹 *भाग - तिरालीसवाँ* 🌹
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*गताँक से आगे :---*
*यूयं वयं वयं यूयमित्यासीन्मतिरावयोः !*
*किं जातमधुना येन यूयं यूयं वयं वयम् !! ६५ !!*
*अर्थात्:-* पहले हमारा आपका इतना गाढ़ा सम्बन्ध था कि, आप थे सो मैं था और मैं था सो आप थे | अब क्या फर्क हो गया है, कि मैं - मैं ही हूँ और आप - आप ही हैं ?
*राजा भर्तृहरि के भाव में अपना भाव यह है कि*
*राजा भर्तृहरि* कहते हैं कि :- पहले आपमें और मुझमें भेद नहीं था , जो आप थे सो मैं था और मैं था सो आप थे | मैं और आप दोनों ही एक से थे - आप और मैं दोनों ही पहले विषयासक्त थे; किन्तु अब बड़ा भेद हो गया है; यानी आप अब तक विषयासक्त ही हैं पर मैं विषयों से विरक्त हो गया हूँ | *आपने अब तक संसार के झूठे सुखों - विषय वासनाओं का परित्याग नहीं किया है; पर मित्र, मैं तो अब इनसे घबरा गया - थक गया; मुझे इनमें कुछ भी सार या तत्व न दीखा, इसलिए मैंने अब सबसे किनारा करके वैराग्य ले लिया है |* आप सभी नरक में ही हैं, पर मैं विवेक-बुद्धि से काम लेकर, नरक से निकलकर स्वर्ग में आ गया हूँ | *आप अभी तक दुःख के बीज बो रहे हैं; पर मैं अब सुख के बीज बो रहा हूँ । मित्र ! तुम भी मेरी तरह उन भयंकर जञ्जालों को छोड़कर मेरी जैसी सुख की राहपर क्यों नहीं आ जाते ?* मित्रवर ! इस राह में सुख है; उस राह में घोर दुःख और नरक यातनाएं हैं | *संसार को छोड़ने और भगवत से प्रीती करने में बड़ा आनन्द है !*
*किसी ने कहा है:-*
*तुम-हम हम-तुम एक हैं, सब विधि रह्यो अभेद !*
*अब तुम-तुम हम-हमहिं हैं, भयो कठिन यह भेद !!*
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*बाले लीलामुकुलितममीमन्थरा दृष्टिपाताः*
*किं क्षिप्यते विरम विरमं व्यर्थ एव श्रमस्ते !*
*संप्रत्यन्ये वयमुपरतम् बाल्यामावस्था वनान्ते*
*क्षीणो मोहस्तृणमिव जगज्जालमालोक्यामः !! ६६ !!*
*अर्थात्:-* ऐ बाला ! अब तू लीला से अपनी आधी खुली आँखों से मुझ पर क्यों कटाक्ष बाण चलाती है ? अब तू काममद पैदा करने वाली दृष्टी को रोक ले; तेरे इस परिश्रम से तुझे कोई लाभ न होगा | अब हम पहले जैसे नहीं रहे हैं | हमारी जवानी चली गयी है | *अब हमने वन में रहने का निश्चय कर लिया है और मोह त्याग दिया है; अब हम विषय सुखों को तृण से भी निकम्मा समझते हैं |*
*अपना भाव :-*
*मनुष्य यदि किसी से वास्तव में परेशान है तो वह है उसका स्वयं का मन ! इस मन को चाहे विषय वासनाओं में धकेल दो चाहे सत्कर्मों में ! यदि मन को विषय वासनाओं में लगाया जाता है तो वहाँ अतृप्त होने पर दुख ही दुख मिलता है ! और सत्कर्म करने से आत्मिक शान्ति प्राप्त होती है ! इसलिए रे मन ! तू जाग जा विषय वासनाओं में डूबकर मिथ्या स्वप्न कबतक देखता रहेगा !*
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" त्रिचत्वारिंशो भाग: !!*
*शेष अगले भाग में:--*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
प्रवक्ता
श्रीमद्भागवत/श्रीरामकथा
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्याजी
(उत्तर-प्रदेश)
9935328830
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