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*‼️ भगवत्कृपा हि केवलम् ‼️*
🚩 *सनातन परिवार* 🚩
*की प्रस्तुति*
🌼 *वैराग्य शतकम्* 🌼
🌹 *भाग - सैंतालीसवाँ* 🌹
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*गताँक से आगे :---*
*प्राप्ताः श्रियः सकलकामदुघास्ततः किं*
*न्यस्तं पदं शिरसि विद्विषतां ततः किं !!*
*सम्पादिताः प्रणयिनो विभवैस्ततः किं*
*कल्पस्थितास्तनुभृतां तनवस्ततः किम् !! ७३ !!*
*जीर्णा कंथा ततः किं सितममलपटं पट्टसूत्रं ततः किम्*
*एका भार्या ततः किं हय करिसुगणैरावृतो वा ततः किम्।।*
*भक्तं भुक्तं ततः किं कदशनमथ वा वासरांते ततः किं*
*व्यक्त ज्योतिर्नवांतर्मथितभवभयं वैभवं वा ततः किम् !! ७४ !!*
*अर्थात्:-* अगर मनुष्यों को सब इच्छाओं के पूर्ण करनेवाली लक्ष्मी मिली तो क्या हुआ ? अगर शत्रुओं को पदावनत किया तो क्या ? अगर धन से मित्रों की सेवा की तो क्या ? अगर इसी देह से इस जगत में एक कल्प तक भी रहे तो क्या ? अगर चीथड़ों की बनी हुई गुदड़ी पहनी तो क्या ? अगर निर्मल सफ़ेद वस्त्र पहने या पीताम्बर पहने तो क्या ? अगर एक ही स्त्री रही तो क्या ? अगर अनेक हाथी-घोड़ों सहित अनेकों स्त्रियां रहीं तो क्या ? अगर नाना प्रकार के व्यंजन भोजन किये अथवा शाम को साधारण खाना खाया तो क्या ? चाहे जितना वैभव पाया, पर यदि संसार बन्धन को मुक्त करनेवाली आत्मज्ञान की ज्योति न जानी, तो कुछ भी न पाया और कुछ भी न किया |
*अपना भाव:--*
संसार में अनेक प्रकार के धनैश्वर्य , सम्पत्तियाँ बिखरी पड़ी हैं ! इनका संचय करके मनुष्य स्वयं को धनवान/ सम्पत्तिवान घोषित करके आनंदित होता रहता है ! वह वास्तविक आनंद के विषय में जानना ही नहीं चाहता | वास्तविक आनंद आत्मज्ञान में ही प्राप्त हो सकता है ` *सारे संसार के राज्य-वैभव अथवा त्रिभुवन के अधिपति होने में भी जो आनन्द नहीं है, वह आत्मज्ञान या ब्रह्मज्ञान में है !* आत्मज्ञान होने से ही मनुष्य, जीवन मरण के कष्ट से छुटकारा पाकर, परम शान्ति-लाभ मिलता है |
*तुलसीदास जी ने लिखा है:--*
*अर्ब खर्ब लौं द्रव्य है, उदय अस्त लौं राज !*
*जो तुलसी निज मरन है, तौ आवे केहि काज ?*
*अर्थात:-* अगर अरब खरब तक धन हो और उदयाचल से अस्ताचल तक राज हो, तो भी अगर अपना मरण हो, तो ये सब किस काम के ? धन-दौलत और राज-पाट सब जीते रहने पर काम आते हैं, मरने पर इनसे कोई लाभ नहीं |
*इसी पर यह भाव निकलता है कि:--*
*इन्द्र भये धनपति भये, भये शत्रु के साल !*
*कल्प जिए तोउ गए, अन्त काल के गाल !!*
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*भक्तिर्भवे मरणजन्मभयं हृदिस्थं*
*स्नेहो न बन्धुषु न मन्मथजा विकाराः !*
*संसर्गदोषरहिता विजना वनान्ता*
*वैराग्यमस्ति किमितः परमार्थनीयम् !! ७५ !!*
*अर्थात्:-* सदाशिव की भक्ति हो, दिल में जन्म-मरण का भय हो, कुटुम्बियों में स्नेह न हो, मन से काम-विचार दूर हों और संसर्ग-दोष से रहित होकर जंगल में रहते हों - अगर हममें ये गुण हों तब और कौन सा वैराग्य ईश्वर से मांगें ?
*अपना भाव:--*
आज लोग वैरागी बनना चाहते हैं परंतु वैराग्य की परिभाषा नहीं जानना चाहते | घर परिवार को छोड़ देना ही एकान्त समझते हैं जबकि हमारे शास्त्रों में वैराग्य को परिभाषित करते हुए बताया है कि :-- *परमात्मा में प्रेम होना, मन में जन्म-मरण का भय होना , रिश्तेदारों से प्रेम तो होना पर मोह न होना, मन में स्त्री की प्रबल इच्छा का न उठना, एकान्तस्थान में अकेले वन में (मन को ही वन बनाकर विचरना) निवास करना - ये ही तो वैराग्य के पूरे लक्षण हैं | इनसे अधिक वैराग्य के और लक्षण नहीं |*
*सारांश:--*
*मन विरक्त हरिभक्ति-युत, संगी बन तृणडाभ !*
*याहुते कछु और है, परम अर्थ को लाभ ?*
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" सप्तचत्वारिंशो भाग: !!*
*शेष अगले भाग में:--*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
प्रवक्ता
श्रीमद्भागवत/श्रीरामकथा
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्याजी
(उत्तर-प्रदेश)
9935328830
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