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*‼️ भगवत्कृपा हि केवलम् ‼️*
🚩 *सनातन परिवार* 🚩
*की प्रस्तुति*
🌼 *वैराग्य शतकम्* 🌼
🌹 *भाग - अड़तालीसवाँ* 🌹
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*गताँक से आगे :---*
*तस्मादनन्तमजरं परमं विकासि-*
*तद्ब्रह्म चिन्तय किमेभिरसद्विकल्पैः !*
*यस्यानुषङ्गिण इमे भुवनाधिपत्य-*
*भोगादयः कृपणलोकमता भवन्ति !! ७६ !!*
*अर्थात्:-* उसलिए मनुष्यों ! अनन्त, अजर, अमर, अविनाशी और शान्तिपूर्ण ब्रह्म का ध्यान करो | मिथ्या जंजालों में क्या रखा है ? जो ब्रह्म का ज़रा सा भी आनन्द पा जाते हैं, उनकी नज़रों में संसारी राजाओं का आनन्द तुच्छ जंचता है |
*अपना भाव:--*
संसार के सभी लोगों को अनन्त, अजर, अमर, अविनाशी, शोक-रहित, शान्तिपूर्ण ब्रह्म का ध्यान करना चाहिए | *उसी के ध्यान में पूर्णानन्द है; संसार के भोग-विलासों में ज़रा भी आनन्द नहीं | वह आनन्द सदा है; या आनंद क्षणिक है |* उसमें सदा सुख है; इसमें सदा दुःख है | *जिनको ब्रह्मानन्द का तनिक भी आनन्द आ जाता है, वे त्रिलोकी के अधिपति के आनन्द को भी तुच्छ समझते हैं |* राज, धन-दौलत और स्त्री-पुत्र प्रभृति सब उस परमात्मा के पीछे हैं; इसलिए इनको छोड़कर उससे ही प्रीति करने में चतुराई है |
*कहा गया है:--*
*ब्रह्म अखण्डानन्द पद, सुमिरत क्यों न निशङ्क !*
*जाके छिन-संसर्ग सों, लगत लोकपति रंक ?*
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*पातालमाविशशि यासि नभो विलङ्घ्य*
*दिङ्मण्डलं भ्रमसि मानस चापलेन !*
*भ्रान्त्यापि जातु विमलं कथमात्मनीतं*
*तद्ब्रह्म न स्मरसि निर्वृतिमेषि येन !! ७७ !!*
*अर्थात्:-* हे चित्त ! तू अपनी चञ्चलता के कारण पाताल में प्रवेश करता है, आकाश से भी परे जाता है, दशों दिशाओं में घूमता है; पर भूल से भी तू उस विमल परमब्रह्म की याद नहीं करता, जो तेरे ह्रदय में ही स्थित है, जिसके याद करने से ही तुझे परमानन्द - मोक्ष - मिल सकती है |
*अपना भाव:---*
मन की चञ्चलता का पार कोई नहीं पा सकता | *इस चञ्चल मन की अद्भुत लीला है |* यह कभी आकाश में जाता है, कभी पाताल में जाता है और कभी दशों दिशाओं में फिरता है । इधर-उधर तो इतना भटकता है; *पर, भूलकर भी, जहाँ जाना चाहिए वहां नहीं जाता |* उसके पास ही अमृत का सरोवर है, उसे छोड़कर सदी-गली नालियों में फिरता है | *उसे सब जगह छोड़ कर अपने ह्रदय में ही बैठे हुए ब्रह्म के पास जाना चाहिए और हर समय उसका ही चिन्तना करना चाहिए; इस से उसके पापों का नाश हो जाएगा, आवागमन से छुटकारा मिल जाएगा एवं परम शान्ति की प्राप्ति होगी |* और चिन्ताओं से कोई लाभ नहीं; उन से तो जञ्जालों में ही फंसना होता है |
मूर्ख लोग एक तो परमत्मा में दिल ही नहीं लगाते | यदि भूल से लगते भी हैं, तो परमात्मा की खोज में जहाँ-तहाँ मारे मारे फिरते हैं; *पर अपने ह्रदय में ही उसे नहीं खोजते ! यह उनका महा अज्ञान है |*
*कबीरदास जी परमात्मा का पता बताते हुए कहते हैं :-*
*ज्यों नयनन में पूतली, त्यों खालिक घट मांहि !*
*मूरख नर जाने नहीं, बाहर ढूंढन जाहि !!*
*कस्तूरी कुण्डल बसै, मृग ढूंढें बन मांहि !*
*ऐसे घट-घट ब्रह्म है, दुनिया जाने नाहिं !!*
*समझा तो घर में रहे, परदा पलक लगाय !*
*तेरा साहिब तुझहि में, अंत कहूँ मत जाय !!*
*ईश्वर कहीं बाहर नहीं है ! इसी पर एक भाव प्रस्तुत है:---*
*कोउक जात प्रयाग बनारस ,*
*कोउ गया जगन्नाथहि धावै !*
*कोउ मथुरा बदरी हरिद्वार सु ,*
*कोउ गंगा कुरुक्षेत्र नहावै !!*
*कोउक पुष्कर ह्वै पञ्च तीरथ ,*
*दौरिहि दौरि जु द्वारिका आवै !*
*सुन्दर चित्त गह्यौ घरमांहि सु ,*
*बाहिर ढूँढत क्यूंकरि पावै ? !!*
*कहने का भाव यह है कि:---*
कोई परमेश्वर की खोज में प्रयाग, काशी, गया, पुरी, मथुरा, कुरुक्षेत्र और पुष्कर जाता है और कोई द्वारका जाता है | परन्तु विचार कीजिए कि *जो धन (परमात्मा) घर में (हृदय में) गड़ा है, वह बाहर कैसे मिलेगा ?*
कहने का तात्पर्य यह है कि कि संसार अज्ञानान्धकार के कारण *"छोरा बगल में ढिंढोरा शहर में"* वाली कहावत चरितार्थ करता है | ईश्वर इसी शरीर के भीतर ह्रदय-कमल में स्थित है, पर अज्ञानी लोग उसे पाने के लिए तीर्थों में भटकते फिरते हैं | इस तरह वह मिलता भी नहीं और वृथा हैरानी होती है | *जो उसके दर्शन करना चाहें, नेत्र बन्द करके अपने ह्रदय में ही उसे देखें |*
*सारांश:--*
*फांद्यौ ते आकाश को, पठयौ ते पाताल !*
*दशों दिशाओं में तू फिरयो, ऐसी चञ्चल चाल !!*
*ऐसी चञ्चल चाल, इतै कबहूँ नहीं आयौ !*
*बुद्धि सदन कों पाय, पाय छिनहूँ न छुवायौ !!*
*देख्यौ नहीं निज रूप, कूप अमृत को छाँद्यौ !*
*ऐरे मन मतिमूढ़ ! क्यों न भव-वारिधि फांद्यौ ? !!*
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" अष्टचत्वारिंशो भाग: !!*
*शेष अगले भाग में:--*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
प्रवक्ता
श्रीमद्भागवत/श्रीरामकथा
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्याजी
(उत्तर-प्रदेश)
9935328830
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