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*‼️ भगवत्कृपा हि केवलम् ‼️*
🚩 *सनातन परिवार* 🚩
*की प्रस्तुति*
🌼 *वैराग्य शतकम्* 🌼
🌹 *भाग - उनचासवाँ* 🌹
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*गताँक से आगे :---*
*रात्रिः सैव पुनः स एव दिवसो मत्वा बुधा जन्तवो*
*धावन्त्युद्यमिनस्तथैव निभृतप्रारब्धतत्तत्क्रियाः !*
*व्यापारैः पुनरुक्तभुक्त विषयैरित्थंविधेनामुना*
*संसारेण कदर्थिता कथमहो मोहान्न लज्जामहे !! ७८ !!*
*अर्थात्:-* प्राणियों में बुद्धिमान यदि जानते हैं कि दिन और रात ठीक पहले की तरह ही होते हैं; तो भी वे उन्हीं काम-धंधों के पीछे दौड़ते हैं, जिनके पीछे वे पहले दौड़ते थे | वे लोग उन्हीं-उन्हीं कामों में लगे रहते हैं, जिनसे क्षणिक और बारम्बार वही लाभ होते हैं, जिनको वे बारम्बार कह और भोग चुके हैं | आश्चर्य का विषय है, कि मनुष्यों को लज्जा नहीं आती |
*अपना भाव:--*
इस संसार में सभी देखते हैं कि पहले की तरह ही दिन, रात, तिथि, वार, नक्षत्र और मॉस तथा वर्ष आते हैं और जाते हैं ; उसी तरह हम खाते-पीते, सोते-जाते और काम-धंधे करते हैं; कोई नई बात नहीं देखते | जिन कामों को पहले करते थे, उन्हें ही बारम्बार करते हैं | उनमें कितना सा लाभ और सुख है, इसे भी देखते-सुनते और समझते हैं | *फिर भी; आश्चर्य है कि, हम इस मिथ्या संसार से मोह नहीं तोड़ते |*
*सारांश:-*
*वे ही निशि वे ही दिवस; वे ही तिथि वे ही बार !*
*वे उद्यम वे ही क्रिया, वे ही विषय-विकार !!*
*वे ही विषय-विकार, सुनत देखत अरु सूंघत !*
*वे ही भोजन भोग, जागि सोवत अरु ऊंघत !!*
*महा निलज यह जीव; भोग में भयो विदेही !*
*अजहूँ पलटत नाहिं, कढत गन वे के वेही !!*
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*मही रम्या शय्या विपुलमुपधानं भुजलता*
*वितानं चाकाशं व्यजनमनुकूलोऽयमनिलः !*
*स्फुरद्दीपश्चन्द्रो विरतिवनितासंगमुदितः*
*सुखं शान्तः शेते मुनिरतनुभूतिर्नृप इव !! ७९ !!*
*अर्थात्:-* मुनि लोग राजा महाराजाओं की तरह सुख से ज़मीन को ही अपनी सुखदायिनी शय्या मान कर सोते हैं | उनकी भुजा ही उनका गुदगुदा तकिया है, आकाश ही उनकी चादर है, अनुकूल वह ही उनका पंखा है, चन्द्रमा ही उनका चिराग है, विरक्ति ही उनकी स्त्री है; अर्थात विरक्ति रुपी स्त्री को लेकर वे उपरोक्त सामानों के साथ राजाओं की तरह सुख से आराम करते हैं |
*अपना भाव :--*
महात्माओं के पास न राजाओं की तरह न महल हैं, न बढ़िया-बढ़िया पलंग और मखमली गद्दे-तकिये हैं, न ओढ़ने के लिए शाल-दुशाले हैं, न बिजली के पंखे हैं, न झाड़-फानूस या बिजली की रौशनी है और न मृगनयनी, मोहिनी कामिनी ही हैं; तो भी वे धरती को ही अपना पलंग, हाथ को ही तकिया, शीतल वह को ही पंखा, चन्द्रमा को ही दीपक और संसारी विषय-भोगों से विरक्ति को ही अपनी स्त्री मान कर सुख से सोते हैं | राजा-महाराजा और अमीर-उमरा बढ़िया-बढ़िया पलंग, कन्दहारी कालीन, मखमली गद्दे-तकिये, बिजली के पंखे और रौशनी तथा सुंदरी स्त्रियों के साथ जो मिथ्या सुख उपभोग करते हैं, उससे लाख दर्जे उत्तम और सच्चा सुख मुनि लोग ज़मीर और अपनी भुजा, अनुकूल वह, चन्द्रमा तथा अपनी विरक्ति रूपिणी स्त्री के साथ उपभोग करते हैं | *अब बुद्धिमानो को विचार करना चाहिए, कि उन दोनों में बुद्धिमान कौन है और वास्तविक सुख किसे मिलता है | अमीरों के सुख के लिए कितने झंझट करने पड़ते हैं और कितनी आफतें उठानी पड़ती हैं; तथापि उन्हें सच्चा सुख नहीं मिलता और मुनि लोग बिना झंझट, बिना आफत और बिना प्रयास के सच्चा सुख भोगते और शान्ति की नींद सोते हैं |*
*सारांश:--*
*पृथ्वी परम पुनीत, पलंग ताकौ मन मान्यौ !*
*तकिया अपनो हाथ, गगन को तम्बू तान्यौ !!*
*सोहत चन्द चिराग, बीजना करात दशों दिशि !*
*बनिता अपनी वृत्ति, संगहि रहत दिवस-निशि !!*
*अतुल अपार सम्पति सहित, सोहत है सुख में मगन !*
*मुनिराज महानृपराज ज्यों, पौढ़े देखे हम दृगन !!*
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" नवचत्वारिंशो भाग: !!*
*शेष अगले भाग में:--*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
प्रवक्ता
श्रीमद्भागवत/श्रीरामकथा
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्याजी
(उत्तर-प्रदेश)
9935328830
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