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*‼️ भगवत्कृपा हि केवलम् ‼️*
🚩 *सनातन परिवार* 🚩
*की प्रस्तुति*
🌼 *वैराग्य शतकम्* 🌼
🌹 *भाग - पचासवाँ* 🌹
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*गताँक से आगे :---*
*त्रैलोक्याधिपतित्वमेव विरसं यस्मिन्महाशासने*
*तल्लब्ध्वासनवस्त्रमानघटने भोगे रतिं मा कृथाः !!*
*भोगः कोऽपि स एक एव परमो नित्योदितो जृम्भते*
*यत्स्वादाद्विरसा भवन्ति विषयास्त्रैलोक्यराज्यादयः !! ८० !!*
*अर्थात्:-* हे आत्मा ! अगर तुझे उस ब्रह्म का ज्ञान हो गया है, जिसके सामने तीनो लोक का राज्य तुच्छ मालूम होता है; तो तू भोजन, वस्त्र और मान के लिए भोगों की चाहना मत कर; क्योंकि वह भोग सर्वश्रेष्ठ और नित्य है; उसके मुकाबले में त्रिलोकी के राज्य प्रभृति सुख कुछ भी नहीं हैं |
*अपना भाव:---*
*जब तक मनुष्य को ब्रह्म ज्ञान नहीं होता, जब तक उसे आत्मज्ञान नहीं होता, जब तक उसे सुख का स्वाद नहीं मिलता, तभी तक मनुष्य संसारी-विषय-भोगों में सुख समझता है |* जब मनुष्य को उस सर्वोत्तम - सदा स्थिर रहनेवाले सुख का स्वाद मिल जाता है, तब वह संसारी आनन्द या सांसारिक आनन्द तो क्या - त्रिभुवन के राजसुख को भी कोई चीज़ नहीं समझता | *कहने का तात्पर्य यह है कि सच्चा और वास्तविक सुख ब्रह्मज्ञान या आत्मज्ञान में है | उसके बराबर आनन्द त्रिलोकी के और किसी पदार्थ में नहीं है |* जो संसारी पदार्थों में सुख मानते हैं वे अज्ञानी और नासमझ हैं | उनमें अच्छे और बुरे, असल और नक़ल के पहचानने की अक्ल नहीं है | *वे रस्सी को सांप और मृगमरीचिका को जल समझने वालों की तरह भ्रम में डूबे या बहके हुए हैं |*
*सारांश :---*
*कहा विषय को भोग, परम भोग इक और है !*
*जाके होत संयोग, नीरस लागत इन्द्रपद !!*
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*किं वेदैः स्मृतिभिः पुराणपठनैः शास्त्रैर्महाविस्तरैः*
*स्वर्गग्रामकुटिनिवासफलदैः कर्मक्रियाविभ्रमैः !*
*मुक्तवैकं भवबन्धदुःखरचनाविध्वंसकालानलं*
*स्वात्मानन्दपदप्रवेशकलनं शेषा वणिग्वृत्तयः !! ८१ !!*
*अर्थात्:-* वेद, स्मृति, पुराण और बड़े बड़े शास्त्रों के पढ़ने तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के कर्मकाण्ड करने से स्वर्ग में एक कुटिया की जगह प्राप्त करने के सिवा और क्या लाभ है ? ब्रह्मानन्द रुपी गढ़ी में प्रवेश करने की चेष्टा के सिवा, जो संसार बन्धनों के काटने में प्रलयाग्नि के समान है, और सब काम व्यापारियों के से काम हैं |
*अपना भाव:-*
वेद, स्मृति, पुराण और बड़े-बड़े शास्त्रों के पढ़ने-सुनने और उनके अनुसार कर्म करने से मनुष्य को कोई बड़ा लाभ नहीं है | अगर ये कर्मकाण्ड ठीक तरह से पार पड़ जाते हैं, तो इनसे इतना ही होता है, कि स्वर्ग में एक कुटी के लायक स्थान मिल जाता है, *पर वह स्थान भी सदा कब्ज़े में नहीं रहता; जिस दिन पुण्यकर्मों का ओर आ जाता है, उस दिन वह स्वर्गीय स्थान फिर छिन जाता है; इससे प्राणी को फिर दुःख होता है |* मतलब यह हुआ कि कर्मकाण्डों से जो सुख मिलता है, वह सुख नित्य या सदा-सर्वदा रहनेवाला नहीं | उस सुख के अन्त में फिर दुःख होता है - फिर स्वर्ग छोड़ कर मृत्युलोक में जन्म लेना पड़ता है - वही जन्म-मरण के दुःख झेलने पड़ते हैं | *इसलिए मनुष्यों को ब्रह्मज्ञानी होने कि चेष्टा करनी चाहिए; क्योंकि ब्रह्मज्ञान रुपी अग्नि प्रलयाग्नि के समान है , वह अग्नि संसार बन्धनों को जड़ से जला देती है* अतः फिर सदा सुख रहता है - दुःख का नाम भी सुनने को नहीं मिलता | इसलिए ज्ञानियों ने ब्रह्मज्ञान - आत्मज्ञान को सर्वोपरि सुख दिलानेवाला माना है । मतलब यह है कि बिना ब्रह्मज्ञान या रामभक्ति के सब जप-तप आती वृथा हैं | *सारे वेद-शास्त्रों और पुराणों का यही निचोड़ है कि ब्रह्म सत्य और जगत मिथ्या है तथा जीव ब्रह्मरूप है |* जो इस तत्व को जानता है वही सच्चा पण्डित है । *जो ब्रह्म या आत्मा को नहीं जानता, वह अज्ञानी और मूर्ख है | उसका पढ़ना लिखना वृथा समय नष्ट करना है !*
*तुलसीदास जी ने कहा है :-*
*चतुराई चूल्हे परौ, यम गहि ज्ञानहि खाय !*
*तुलसी प्रेम न रामपद, सब जरमूल नशाय !!*
*किसी प्रसंग में महादेवजी पार्वती से कहते हैं :-*
*ये नराधम लोकेषु, रामभक्ति पराङ्गमुखाः !*
*जपं तपं दयाशौचं, शास्त्राणां अवगाहनं !!*
*सर्व वृथा विना येन, श्रुणुत्वं पार्वति प्रिये !*
*अर्थात्:-* हे प्रिये ! जो नराधम इस लोक में राम की भक्ति से विमुख हैं, उनके जप, तप, दया, शौच, शास्त्रों का पठन-पाठन - ये सब वृथा हैं । *असल तत्व भगवान् की निष्काम भक्ति या ब्रह्म में लीन होना है !*
*सारांश:--*
*श्रुति अरु स्मृति, पुरान पढ़े बिस्तार सहित जिन !*
*साधे सब शुभकर्म, स्वर्ग को बात लह्यौ तिन !!*
*करत तहाँ हूँ चाल, काल को ख्याल भयंकर !*
*ब्रह्मा और सुरेश, सबन को जन्म मरण डर !!*
*ये वणिकवृत्ति देखी सकल, अन्त नहीं कछु काम की !*
*अद्वैत ब्रह्म को ज्ञान, यह एक ठौर आराम की !!*
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" पञ्चाशत्तमो भाग: !!*
*शेष अगले भाग में:--*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
प्रवक्ता
श्रीमद्भागवत/श्रीरामकथा
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्याजी
(उत्तर-प्रदेश)
9935328830
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