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*‼️ भगवत्कृपा हि केवलम् ‼️*
🚩 *सनातन परिवार* 🚩
*की प्रस्तुति*
🌼 *वैराग्य शतकम्* 🌼
🌹 *भाग - इक्यावनवाँ* 🌹
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*गताँक से आगे :---*
*ब्रह्माण्डमण्डलीमात्रं किं लोभाय मनस्विनः !*
*शफरीस्फुरितेनाब्धेः क्षुब्धता जातु जायते !! ८२ !!*
*अर्थात्:-* जो विचारवान है, जो ब्रह्मज्ञानी है, उसे संसार लुभा नहीं सकता | मछली के उछालने से समुद्र उड़ नहीं उमड़ता |
*अपना भाव:---*
जिस तरह सफरी मछली के उछाल-कूद मचाने से समुद्र अपनी गंभीरता को नहीं छोड़ता, ज़रा भी नहीं उमगता, जैसा का तैसा बना रहता है; *उसी तरह विचारवान ब्रह्मज्ञानी संसारी-पदार्थों पर लट्टू नहीं होता वह समुद्र की तरह गंभीर ही बना रहता है; अपनी गंभीरता नहीं छोड़ता |* समुद्र जिस तरह मछली की उछल-कूद को कुछ नहीं समझता उसी तरह वह त्रिलोकी की सुख-संपत्ति को तुच्छ समझता है | *मतलब यह है कि संसारी विषय-भोग उन्ही को लुभाते हैं, जो विचारवान नहीं हैं, जिनमें विचार शक्ति नहीं है, जिन्हे ब्रह्मज्ञान का आनन्द नहीं मालूम है |*
संसार अन्तः सार-शून्य है, इसमें कुछ नहीं है | यह ठीक आंवले के समान है, जो ऊपर से खूब सुन्दर और चिकना-चुपड़ा दीखता है; मगर भीतर कुछ नहीं | *किसी ने संसार को स्वप्नवत और किसी ने इसे कोरा ख्याल ही कहा है !* संसार के लिभावने जाल में समझदार नहीं फंसते किन्तु नासमझ लोग, जाल के किनारों पर लगी सीपियों की चमक-दमक देखकर जाल में आ फंसने वाली मछलियों की तरह इसके माया-मोह में फंसकर अनेक प्रकार के कष्ट उठाते हैं; *किन्तु ज्ञानी इसकी अनित्यता, इसकी असारता को देखकर इससे किनारा कर लेते हैं |*
*सारांश:---*
*ज्यों सफरी को फिरत लख, सागर करत न क्षोभ !*
*अण्डा से ब्रह्माण्ड को, त्यों सन्तन को लोभ !!*
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*यदासीदज्ञानं स्मरितिमिरसंस्कारजनितं*
*तदा दृष्टं नारिमयभिदमशेषं जगदपि !*
*इदानीमस्माकं पटुतर विवेकाञ्जनजुषां*
*समीभूता दृष्टीस्त्रिभुवनमपि ब्रह्म तनुते !! ८३ !!*
*अर्थात्:-* जब तक हमें कामदेव से पैदा हुआ अज्ञान-अन्धकार था, तब तक हमें सारा जगत स्त्रीरूप ही दीखता था | अब हमने विवेकरूपी अञ्जन आँज लिया है, इससे हमारी दृष्टी समान हो गयी है | अब हमें तीनो भुवन ब्रह्मरूप दिखाई देते हैं |
*अपने भाव में श्लोक की विवेचना करने का प्रयास*
*भर्तृहरि जी कहते हैं:-* जब हम काम-मद से अन्धे हो रहे थे, जब हमें अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं था, तब हमें स्त्री ही स्त्री दिखाई देती थी, बिना स्त्री हमें क्षणभर भी कल नहीं थी; किन्तु अब हममें विवेक-बुद्धि आ गयी है, अब हम अच्छे-बुरे को समझने लगे हैं, इसलिए अब हमें सारा संसार एक सा मालूम होता है | अब हमें कहीं स्त्री नहीं दीखती, सभी तो एक से दीखते हैं | जहाँ नज़र दौड़ाते हैं, वहीँ ब्रह्म ही ब्रह्म नज़र आता है | मतलब यह कि न कोई स्त्री है न कोई पुरुष, सभी तो एकही हैं; केवल चोले का भेद है | *आत्मा न स्त्री है न पुरुष; वह सबमें समान है | मगर अज्ञानियों को यह बात नहीं दीखती | उन्हें और का और दीखता है |*
*श्वेताश्वतरोपनिषद में लिखा है -*
*नैव स्त्री न पुमानेष न चैवायं नपुंसकः !*
*यद्यच्छरीरमादत्ते तेन तेन स युज्यते !!*
*भावार्थ:-* यह आत्मा न स्त्री है न पुरुष और न नपुंसक | यह जिस शरीर को धारण करता है, उसी-उसी के साथ जुड़ जाता है | *जब मनुष्य को इस बात का ज्ञान हो जाता है कि स्त्री और पुरुष में कोई भेद नहीं, जो मैं हूँ वही स्त्री है - स्त्री ने और तरह का कपडा पहन रखा है और मैंने और तरह का - तब उसका मन स्त्री पर नहीं भूलता |* अपने ही स्वरुप को और समझकर उससे मैथुन करने की इच्छा नहीं होती | *ज्ञानी को संसार में शत्रु, मित्र, स्त्री-पुत्र, स्वामी-सेवक नहीं दीखते | वह स्त्री-पुत्र और शत्रु-मित्र सबको समान समझता है; किसी से राग और किसी से द्वेष नहीं रखता |* उसे कुत्ते में, आदमी में तथा प्राणी मात्र में ही एक विष्णु दीखता है | *यह अवस्था परमपद की अवस्था है |*
*स्वामी शंकराचार्य जी कहते हैं -*
*शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ*
*मा कुरु यत्नं विग्रहसन्धौ !*
*भव समचित्तः सर्वत्र त्वम्*
*वाञ्छस्यचिराद् यदि विष्णुत्वम् !!*
*अर्थात्:-* शत्रु, मित्र और पुत्र-बांधवों में, विरोध या मेल के लिए चेष्टा न कर | यदि शीघ्र ही मोक्ष पद चाहता है तो शत्रु-मित्र और पुत्र-कलत्र प्रभृति को एक दृष्टि से देख | सबको अपना समझ, किसी को गैर न समझ; समान चित्त हो जाय | जैसा ही पुरुष वैसी ही स्त्री, जैसा बेटा वैसा दुश्मन और जैसा धन वैसी मिटटी |
*🌹 एक सुन्दर दृष्टान्त 🌹*
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एक साधु सदा ज्ञानोन्मत्त अवस्था में रहता था | वह कभी किसी से फालतू बातचीत नहीं करता था | एक दिन वह एक गाँव में भिक्षा मांगने गया | एक घर से उसे जो रोटी मिली, वह उसे आप खाने लगा और साथ में कुत्ते को भी खिलने लगा | यह देख वहां अनेक लोग इकट्ठे हो गए और उनमें से कोई-कोई उसे पगला कह कर उसकी हंसी करने लगे | *यह देख महात्मा ने उनसे कहा - "तुम क्यों हँसते हो ?*
*विष्णुः परिस्थितो विष्णुः*
*विष्णुः खादति विष्णवे !*
*कथं हससि रे विष्णो ?*
*सर्वं विष्णुमयं जगत् !!*
*अर्थात्:-* विष्णु के पास विष्णु है , विष्णु, विष्णु को खिलाता है , अरे विष्णु, तू क्यों हँसता है ? *सारा जगत विष्णुमय है; अर्थात सारा संसार उस पूर्णतम विष्णु से व्याप्त है |*
सच्चे और पहुंचे हुए साधू-फ़क़ीर सारे संसार में एक परमात्मा को देखते हैं उन्हें दूसरा कोई नज़र नहीं आता | *अज्ञानी लोग, जिनके ज्ञान-चक्षु बन्द हैं, जगत में किसी को अपना और किसी को पराया समझते हैं !*
*किसी ने क्या अच्छा उपदेश दिया है :-*
*एकान्ते सुखमास्यतां परतरे चेतः समाधीयताम् !*
*पूर्णात्मा सुसमीक्ष्यतां जगदिदं तद्व्यापितं दृश्यतां !!*
*प्राक्कर्म प्रविलोप्यतां चितिबलान्नाप्युत्तरे श्लिष्यतां !*
*प्रारब्धं त्विह भुज्यतामथ परब्रह्मात्मना स्थीयताम् !!*
*अर्थात:-* एकान्त-निर्जन स्थान में सुख से बैठना चाहिए | परब्रह्म परमात्मा में मन लगाना चाहिए | पूर्णात्मा पूर्णब्रह्म से साक्षात् करना चाहिए और इस जगत को पूर्णब्रह्म से व्याप्त समझना चाहिए | *पूर्वजन्म के कर्मो का लोप करना चाहिए और ज्ञान के प्रभाव से अब के किये कर्मों के फल त्याग देने चाहिए; अर्थात् निष्काम कर्म करने चाहिए; जिससे कर्मबन्धन में बंधकर फिर जन्म न लेना पड़े |* इस संसार में प्रारब्ध या पूर्व जन्म के कर्मो को भोगना चाहिए और इसके बाद परमेश्वररूप से इस जगत में ठहरना चाहिए; *अर्थात् अपने में और परमात्मा में भेद न समझना चाहिए |*
*सारांश:--*
*काम-अन्ध जबही भयौ, तिय देखी सब ठौर !*
*अब विवेक-अञ्जन किये, लख्यौ अलख सिरमौर !!*
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" एकपञ्चाशत्तमो भाग: !!*
*शेष अगले भाग में:--*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
प्रवक्ता
श्रीमद्भागवत/श्रीरामकथा
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्याजी
(उत्तर-प्रदेश)
9935328830
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