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*‼️ भगवत्कृपा हि केवलम् ‼️*
🚩 *सनातन परिवार* 🚩
*की प्रस्तुति*
🌼 *वैराग्य शतकम्* 🌼
🌹 *भाग - बावनवाँ* 🌹
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*गताँक से आगे :---*
*रम्याश्चन्द्रमरिचयस्तृणवती रम्या वनान्तस्थळी*
*रम्यः साधुसमागमः शमसुखं काव्येषु रम्याः कथाः !*
*कोपोपहितवाष्पबिन्दुतरलं रम्यं प्रियाया मुखं*
*सर्वंरम्यम नित्यतामुपगते चित्तेनकिञ्चित्पुनः !! ८४ !!*
*अर्थात्:-* चन्द्रमा की किरणे, हरी-हरी घास के तख्ते, मित्रों का समागम, शृङ्गार रस की कवितायेँ, क्रोधाश्रुओं से चञ्चल प्यारी का मुख - पहले ये सब हमारे मन को मोहित करते थे; किन्तु जब से संसार की अनित्यता हमारी समझ में आयी, तब से ये सब हमें अच्छे नहीं लगते |
*अपना भाव:---*
जब तक मनुष्य को संसार की असारता, उसकी अनित्यता, उसका थोथापन, उसकी पोल नहीं मालूम होती, तभी तक मनुष्य संसार और संसार के झगड़ों में फंसा रहता है और विषय भोगों को अच्छा समझता है; किन्तु संसार की असलियत मालूम होते ही, उसे विषय सुखों से घृणा हो जाती है | उस समय न उसे चन्द्रमा की शीतल चांदनी प्यारी लगती है, न मित्रमण्डली अच्छी मालूम होती है, न शृङ्गार रस की कवितायेँ अच्छी मालूम होती हैं और न उसका चित्त, चंद्रवदनि कामिनियों को ही देखकर मचलता है | *क्योंकि तब वह संसार के सत्य को जान गया रहे है !*
*सारांश:-*
*चन्द चाँदनी रम्य, रम्य बनभूमि पहुपयुत !*
*योंही अति रमणीक, मित्र मिळवो है अद्भुत !!*
*बनिता के मृदु बोल, महारमणीक विराजत !*
*मानिनमुख रमणीक, दृगन अँसुअन जल साजत !!*
*ए हे परमरमणीक सब, सब कोउ चित्त में चहत !*
*इनको विनाश जब देखिये, तब इनमें कछुहु न रहत !!*
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*भिक्षाशी जनमध्यसंगरहितः स्वायत्तचेष्टः सदा*
*दानादानविरक्तमार्गनिरतः कश्चित्तपस्वी स्थितः!*
*रथ्याक्षीणविशीर्णजीर्णवसनैः सम्प्राप्तकंथासखि-*
*र्निमानो निरहंकृतिः शमसुखाभोगैकबद्धस्पृहः !! ८५ !!*
*अर्थात्:-* ऐसा तपस्वी को विरला ही होता है, जो भीख मांगकर खाता है, जो अपने लोगों में रहकर भी उनमें मोह नहीं रखता, जो स्वाधीनतापूर्वक अपना जीवन निर्वाह करता है, जिसने लेने और देने का व्यवहार छोड़ दिया है, जो राह में पड़े हुए चीथड़ों की गुदड़ी ओढ़ता है, जिसे मान का ख्याल नहीं है, जिसमें अभिमान नहीं है और जो ब्रह्मज्ञान के सुख को ही सुख मानता है |
*ज्ञानी के लक्षण* सुन्दरदास जी ने इस भांति कहे हैं -
*कर्म न विकर्म करे, भाव न अभाव धरे*
*शुभ न अशुभ परे, यातें निधरक है !!*
*वस तीन शून्य जाके, पापहु न पुण्य ताके*
*अधिक न न्यून वाके, स्वर्ग न नरक है !!*
*सुख दुःख सम दोउ, नीचहूँ न उंच कोउ*
*ऐसी विधि रहै सोउ, मिल्यो न फरक है !!*
*एकही न दोय जाने, बंद मोक्ष भ्रम मानै*
*सुन्दर कहत, ज्ञानी ज्ञान में गरक है !!*
*भावार्थ;--*
जो भीख मांगकर पेट की अग्नि को शांत कर लेता है, पर किसी की प्रशंसा नहीं करता, किसी के अधीन नहीं होता, स्वाधीन रहता है; राह में पड़े हुए चीथड़े उठाकर उनकी ही गुदड़ी बनाकर ओढ़ लेता है; मान-अपमान और सुख-दुःख को समान समझता है; न किसी से कुछ लेता है न किसी को कुछ देता है; गृहस्थी में या अपने बन्धु-बान्धवों में रहकर भी उनमें ममता नहीं रखता; शुभाशुभ, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक को कोई चीज़ नहीं समझता; किसी को नीच और किसी को उंच नहीं समझता, सभी में एक आत्मा देखता है; बन्धन और मोक्ष को भी मन का संकल्प या भ्रम समझता है तथा ब्रह्मज्ञान में गर्क रहता है और उसमें ही पूर्ण सुख समझता है - *उससे बढ़कर ज्ञानी और कौन है ? ऐसे ज्ञानी के जीवन्मुक्त होने में संशय नहीं | उसे जन्म-मरण का कष्ट नहीं उठाना पड़ता | वह सदा परमानन्द में मग्न रहता है, पर ऐसे पुरुष कोई-कोई ही होते हैं |*
*सारांश:--*
*उञ्छवृत्ति गति मान, समदृष्टि इच्छारहित !*
*करत तपस्वी ध्यान, कंथा को आसन किये !!*
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" द्विपञ्चाशत्तमो भाग: !!*
*शेष अगले भाग में:--*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
प्रवक्ता
श्रीमद्भागवत/श्रीरामकथा
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्याजी
(उत्तर-प्रदेश)
9935328830
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