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*‼️ भगवत्कृपा हि केवलम् ‼️*
🚩 *सनातन परिवार* 🚩
*की प्रस्तुति*
🌼 *वैराग्य शतकम्* 🌼
🌹 *भाग - तिरपनवाँ* 🌹
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*गताँक से आगे :---*
*मातर्मेदिनि तात मारुत सखे तेजः सुबन्धो जलं*
*भ्रातर्व्योम निबद्ध एव भवतामेष प्रणामाञ्जलिः !*
*युष्मतसंगवशोपजातसुकृतोद्रेकस्फुरन्निर्म्मल-*
*ज्ञानापास्तसमस्तमोहमहिमा लिये परे ब्रह्मणि !! ८६ !!*
*अर्थात्:-* हे माता पृथ्वी ! पिता वायु ! मित्र तेज ! बन्धु जल ! भाई आकाश ! अब मैं आपको अन्तिम विदाई का प्रणाम करता हूँ । आपकी संगती से मैंने पुण्य कर्म किये और पुण्यों के फल स्वरुप मुझे आत्मज्ञान हुआ, जिसने मेरे संसारी मोह का नाश कर दिया | अब मैं परब्रह्म में लीन होता हूँ |
*अपना भाव:--*
मनुष्य शरीर पृथ्वी, वायु, तेज, जल और आकाश - पांच तत्वों से बनता है | जिसे आत्मज्ञान हो गया है, जिसने ब्रह्म को पहचान लिया है, वह इन पांच तत्वों से विदा लेता है और प्रणाम करके कहता है, कि मैं आप पाँचों के संग रहने से - यह शरीर धारण करने से - इस योग्य हुआ कि, ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर सका; अब मेरा आपका साथ न होगा, अब मैं छोले में न आऊंगा, अब मुझे जन्म न लेना पड़ेगा | मैं आप लोगों का कृतज्ञ हूँ ; क्योंकि आपकी सुसंगति से ही मुझे या फल मिला है | अब मैं आपसे सदा को विदा होता हूँ | अब मैं ब्रह्म के आनन्द में मग्न हूँ | अब मुझे यहाँ आने की, आप लोगों की संगती करने की; यानि शरीर धारण करने की जरुरत नहीं | *मतलब यह है कि मनुष्य का चोला ब्रह्मज्ञान के लिए मिलता है; और चोलों में, यह ज्ञान नहीं हो सकता , जो मनुष्य चोले में आकर ब्रह्मज्ञान लाभ करते हैं और उसकी बदौलत परम पद या मोक्ष प्राप्त करते हैं - वे ही धन्य हैं, उन्हीं का मनुष्य-देह पाना सार्थक है |*
*सारांश:--*
*अरी मेदिनी-मात, तात-मारुत सुन ऐरे !*
*तेज-सखा जल-भ्रात, व्योम-बन्धु सुन मेरे !!*
*तुमको करत प्रणाम, हाथ तुम आगे जोरत !*
*तुम्हारे ही सत्संग, सुकृत कौ सिन्धु झकोरत !!*
*अज्ञान जनित यह मोहहू, मिट्यो तुम्हारे संगसों !*
*आनन्द अखण्डानन्द को, छाय रह्यो रसरंग सों !!*
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*यावत्स्वस्थमिदं कलेवरगृहं यावच्च दूरे जरा*
*यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः !*
*आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महा-*
*न्प्रोदीप्ते भवने च कूपखननं प्रत्युद्यमः कीदृशः !! ८७ !!*
*अर्थात्:-* जब तक शरीर ठीक हालत में है, बुढ़ापा दूर है, इन्द्रियों की शक्ति बनी हुई है, आयु के दिन बाकी हैं, तभी तक बुद्धिमान को अपने कल्याण की चेष्टा अच्छी तरह से कर लेनी चाहिए | घर जलने पर कुआँ खोदने से क्या फायदा |
*अपना भाव:--*
*जब तक आपका शरीर निरोग और तन्दरुस्त रहे, बुढ़ापा न आवे, आपकी इन्द्रियों की शक्ति ठीक बनी रहे, आपका अन्त दूर हो, उम्र बाकी दिखे, तभी तक आप अपनी भलाई की चेष्टा कर लीजिये; *यानि ऐसी हालत में ही भगवान् का भजन कर लीजिये |* जब आप रोगों से जर्जरित हो जाएंगे, कफ,खांसी और दम घेर लेंगे, आँखों से न दिखेगा, कानो से न सुनाई देगा, गले में घर-घर कफ बोलने लगेगा, मौत अपना पंजा जमा देगी, तब आप क्या करेंगे ? अर्थात कुछ नहीं | *उस समय आप कुछ करने की चेष्टा करेंगे भी, तो आपकी दशा उसकी सी होगी, जो घर में आग लगने पर कुआ खोदता है |*
*किसी ने कहा है -*
*प्रथम नार्जिता विद्या, द्वितीय नार्जितं धनं |*
*तृतीये नार्जितं पुण्यं, चतुर्थे किं करिष्यति ? !!*
*अर्थात्:-* बचपन में यदि विद्या नहीं सीखी, जवानी में यदि धन सञ्चय नहीं किया, बुढ़ापे में यदि पुण्य नहीं किया; तो चौथेपन में क्या करोगे ?
*अपना भाव:--*
सबसे अच्छी बात तो बचपन में ही परमात्मा की भक्ति करना है | *ध्रुव और प्रह्लाद ने बचपन में ही भक्ति करके परमात्मा के दर्शन किये थे अगर इस उम्र में न हो सके, तो जवानी में, जवानी में न हो सके तो बुढ़ापे में तो चूकना ही न चाहिए |* स्त्री-पुत्र, धन-दौलत का मोह छोड़ परमात्मा में मन लगाओ; आजकल पर मत टालो; *क्योंकि मौत हर समय घात में है, न जाने कब तुम्हे ले जाय | जब वह आ जाएगी तो तुमसे कुछ करते-धरते न बनेगा, तुम घबरा जाओगे, मुंह से परमात्मा का नाम न निकलेगा और हाथों से दान या पराया उपकार न कर सकोगे |* उस समय तुम्हारा परलोक बनाने की चेष्टा करना, आग लग जाने पर कुंआ खोदने वाले के समान मूर्खतापूर्ण काम होगा | *अतः जो करना है, मरने के समय से पहले ही करो |*
*किसी ने कहा है:-*
*वेदो नित्यंधीयतां तदुदितं कर्म स्वनुष्ठीयतां*
*तेनेशस्यपिधीयतामपचितिः कामे मतिसत्यज्यतां |*
*पापौघः परिधूयतां भवसुखे दोषोऽनुसन्धीयताम्*
*आत्मेच्छा व्यवसीयतां निजगृहात् तूर्णं विनिर्गम्यताम् !!*
*अर्थात्:-* नित्य वेद पढ़ो और वेदोक्त कर्मो का अनुष्ठान करो | वेद विधि से परमेश्वर की पूजा करो | विषय भोगों को बुद्धि से हटाओ ; यानि विषयों को त्यागो | पाप समूह का निवारण करो | संसारी सुख इत्र-फुलेल चन्दनादि के लगाने, स्त्री-भोगने और नाच-गाना देखने सुनने प्रभृति परिणाम विचारो ; यानि इनके दोषों की भावना करो | परमेश्वर या आत्मा में अनुराग करो और गृहस्थी के अनेक दोषों को समझ कर, शीघ्र ही घर को त्यागकर वन को चले जाओ |
*सारांश:--*
*जौ लौं देह निरोग, और जौ लौं जरा तन !*
*अरु जौ लौं बलवान आयु, अरु इन्द्रिन के गन !!*
*तौं लौं निज कल्याण करन को, यत्न विचारत !*
*वह पण्डित वह धीर-वीर, जो प्रथम सम्हारत !!*
*फिर होत कहा जर्जर भये, जप तप संयम नहिं बनत !*
*भव काम उठ्यौ निज भवन जब, तब क्योंकर कूपहि खनत !!*
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" त्रिपञ्चाशत्तमो भाग: !!*
*शेष अगले भाग में:--*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
प्रवक्ता
श्रीमद्भागवत/श्रीरामकथा
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्याजी
(उत्तर-प्रदेश)
9935328830
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