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*‼️ भगवत्कृपा हि केवलम् ‼️*
🚩 *सनातन परिवार* 🚩
*की प्रस्तुति*
🌼 *वैराग्य शतकम्* 🌼
🌹 *भाग - चौवनवाँ* 🌹
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*गताँक से आगे :---*
*नाभ्यस्ता भुविवादिवृन्ददमनी विद्या विनीतोचिता*
*खड्गाग्रैः करिकुम्भपीठदलनैर्नाकं न नीतं यशः !*
*कान्ताकोमलपल्लवाधररसः पीतो न चन्द्रोदये*
*तारुण्यं गतमेव निष्फलमहो शून्यालये दीपवत् !! ८८ !!*
*अर्थात्:--* हमनें इस जगत में नम्रों को संतुष्ट करनेवाली और वादियों की मान भञ्जन करनेवाली विद्या नहीं पढ़ी, तलवार की धार से हाथी के मस्तक का पिछला भाग काटकर अपना यश स्वर्ग तक नहीं पहुँचाया; चांदनी रात में सुन्दरी के कोमल अधर-पल्लव (निचले होठ) का रस भी नहीं पिया । हाय ! हमारी जवानी सूने घर में जलनेवाले और आप ही बुझ जाने वाले दीपक की तरह यों ही गयी !
*अपना भाव:--*
इस संसार में आकर माया माया के द्वन्द - फन्द में फंसकर मनुष्य दिवास्वप्न देखा करता है | *संसार में आने का अपना उद्देश्य भूल कर वह काम क्रोध आदि में उलझ कर इस अनमोल जीवन को नष्ट करता रहता है !* उसको ऐसा लगता है कि हमने इस संसार में आकर के संसार में उपस्थित संसाधनों का उपयोग नहीं किया तो कुछ भी नहीं किया *जबकि संसार में उपस्थित संसाधन मनुष्य को माया के भंवर जाल में फंसाते चले जाते हैं !* इन से बाहर निकलने के लिए मनुष्य को अपने विचार सकारात्मक एवं आध्यात्मिक बनाना पड़ता है अन्यथा वह इसी भवसागर में डूबता उतराता रहता है |
*सारांश :--*
*विद्या पढ़ी न रिपु दले, रह्यौ न नारि समीप !*
*यौवन यह योंही गयो, ज्यों सूने गृह दीप !!*
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*ज्ञानं सतां मानमदादिनाशनं*
*केषांचिदेतन्मदमानकारणं !*
*स्थानं विविक्तं यामिनां विमुक्तये*
*कामातुराणामतिकामकारणाम् !! ८९ !!*
*अर्थात्:-* अच्छे मनुष्यों में तो ज्ञान उनके मान-मद आदि का नाश करता है; किन्तु दुष्टों में वही ज्ञान मान-मद प्रभृति औगुणों की वृद्धि करता है | एकांत स्थान योगियों के लिए तो मुक्ति दिलानेवाला होता है; किन्तु वही कामियों की कामज्वाला बढ़ानेवाला होता है |
*अपना भाव:--*
जिस तरह स्वाति-बूँद सीप में पड़ने से मोती और केले में कपूर हो जाती है, किन्तु सर्पमुख में पड़ने से विष का रूपधारण करती है; उसी तरह एक चीज़ पुरुष-भेद से अलग अलग गुण दिखाती है | *ज्ञान से अच्छे लोगों का अभिमान नाश हो जाता है, वे सब किसी को अपने बराबर समझते हैं, सबके साथ सहानुभूति रखते हैं, किसी का दिल नहीं दुखाते; किन्तु उसी ज्ञान से दुष्ट लोगों की दुष्टता और भी बढ़ जाती है, वे अपने सामने जगत को तुच्छ समझते हैं; विद्याभिमान के मारे किसी की ओर नज़र उठा कर भी नहीं देखते, अपने सिवा सबको पशु समझते हैं |* एक ही ज्ञान दो स्थानों में, स्थान भेद से अपना अलग-अलग प्रभाव दिखाता है | *जैसे एकान्त स्थान योगियों के चित्त को ब्रह्मविचार में लीन करता है और इससे उनको परमपद - मुक्ति - मिल जाती है ; किन्तु वही एकान्त स्थान काम पिपासुओं के हृदय में काम लोलुपता एवं वासनात्मक विचार पैदा करता है |*
*सारांश:--*
*ज्ञान घटावै मान-मद, ज्ञानहि देय बढ़ाय !*
*रहसि मुक्ति पावे यती, कामी रत लपटाय !!*
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" चतु:पञ्चाशत्तमो भाग: !!*
*शेष अगले भाग में:--*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
प्रवक्ता
श्रीमद्भागवत/श्रीरामकथा
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्याजी
(उत्तर-प्रदेश)
9935328830
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