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*‼️ भगवत्कृपा हि केवलम् ‼️*
🚩 *सनातन परिवार* 🚩
*की प्रस्तुति*
🌼 *वैराग्य शतकम्* 🌼
🌹 *भाग - पचपनवाँ* 🌹
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*गताँक से आगे :---*
*जीर्णा एव मनोरथाः स्वहृदये यातं च जरां यौवनं*
*हन्ताङ्गेषु गुणाश्च वन्ध्यफलतां याता गुणज्ञैर्विना !*
*किं युक्तं सहसाऽभ्युपैति बलवान्कालः कृतान्तोऽक्षमी*
*ह्याज्ञातंस्मरशासनाङ्घ्रियुगलं मुक्त्वाऽस्तिनान्यागतिः !! ९० !!*
*अर्थात्:-* हमारी इच्छाएं हमारे ह्रदय में ही जीर्ण हो गईं, जवानी भी चली गयी, हमारे अच्छे-अच्छे गुण भी कदरदानों के न होने से बेकार हो गए, सर्वशक्तिमान, सर्वनाशक काल (मृत्यु) शीघ्र-शीघ्र हमारे पास आ रहा है; इसलिए अब हमारी समझ में कामारि शिव के चरणों के सिवा और जगह हमारी रक्षा नहीं है |
*अपना भाव:--*
मनुष्य की इच्छा कभी भी पूरी नहीं होती है ! मनुष्य दुखित होकर कहता है - *हमारे मन की मन में ही रह गयी, हमारे अरमान न निकले और जवानी कूच कर गयी; अब उसके आने की भी उम्मीद नहीं, क्योंकि जवानी किसी की भी लौटकर आती सुनी नहीं ! मनुष्य की तृष्णा कभी नहीं बुझती, एक पर एक इच्छा उठा ही करती है ! इच्छाएं पूरी नहीं होती और मौत आ जाती है !* अन्तकाल में मनुष्य अपने मन ही मन में विचारता और पछताता है कि :-- *मेरे मन में हज़ारों वासनाएं हैं, पर वासनाओं के पूर्ण न होने का दुःख भी कुछ कम नहीं है | हे ईश्वर ! मैं अपने मन की विशालता से तंग हो गया ! अब मेरा जी यही चाहता है, कि इस विराट दिल से तंग होकर कहीं चला जाऊं !*
*बहुत सुंदर भाव प्रस्तुत है :--*
*तीनहिं लोक आहार कियो सब*
*सात समुद्र पियो पुनि पानी !*
*और जहाँ तहाँ ताकत डोलत*
*काढत आँख डरावत प्रानी !!*
*दांत दिखावत जीभ हिलावत*
*या हित मैं यह डाकिनि जानी !*
*सुन्दर खात भये कितने दिन*
*हे तृष्णा ! अजहुँ न अघानी !!*
इस तृष्णा से सभी समझदार अन्त में दुखी ही हुए हैं और उन्होंने पछता पछता कर ऐसी ही बातें कही हैं | इस तृष्णा के फेर में मनुष्य का बुढ़ापा आ जाता है, पर तृष्णा बूढी नहीं होती | बुढ़ापे में उसका ज़ोर और भी बढ़ जाता है | यह (तृष्णा) तीनो लोको को खाकर और सातों सागरों को पीकर भी नहीं अघाती | *इसलिए मनुष्य को आशा-तृष्णा त्यागकर, परमात्मा में लौ लगनी चाहिए !* जो नहीं चेतते, उनका परिणाम बुरा होता है | *जब एकदम से बुढ़ापा छा जाता है, शरीर अशक्त हो जाता है, तब कुछ भी नहीं होता !* आयु समाप्त होने या मृत्यु आ जाने पर मनुष्य पछताता हुआ सबको छोड़ चला जाता है |
*इसीलिए कहा है -*
*ये मम देश विलायत हैं गज*
*ये मम मन्दिर ये मम थाती !*
*ये मम मात पिता पुनि बान्धव*
*ये मम पूत सु ये मम नाती !!*
*ये मम कामिनि केलि करै नित*
*ये मम सेवक हैं दिन राती !*
*सुन्दर ऐसेही छाँड़ि गयो सब*
*तेल जरयो सु बुझी जब बाती !!*
*अर्थात्:- मनुष्य जीवन भर कहा करता है कि:-- यह मेरा देश है, ये मेरे हाथी-घोड़े महल-मकान हैं, ये मेरे माँ-बाप और बन्धु-बान्धव तथा नाती-पोते हैं, यह मेरी स्त्री और यह मेरे सेवक हैं; ऐसे करता करता ही मनुष्य सबको छोड़कर चला जाता है | *जिस तरह तेल के जल जाने पर दीपक बुझ जाता है; उसी तरह उम्र पूरी होने पर मनुष्य मर जाता है |* अतः जवानी में ही स्त्री-पुत्र प्रभृति सबका मोह छोड़, एकान्त में जा, परमात्मा का भजन करना चाहिए; क्योंकि बुढ़ापे में कुछ नहीं हो सकता | यह सत्य है कि *जवानी में जिन्होंने एकान्त में ईश्वर भजन किया है, सच्चे भक्त वही हैं, बूढा आदमी अगर एकान्तवास पर गर्व करे तो झूठा है, क्योंकि वह तो जहाँ पड़ा है, वह से सरक ही नहीं सकता |*
जो लोग सारी उम्र संसारी जंजालों में बिता देते हैं और परमात्मा का भजन नहीं करते, वे कैसे होते हैं यह बताते हुए *सुन्दरदास जी कहते हैं :--*
*ग्रीव त्वचा कटि है लटकी*
*कचहुँ पलटे अजहुँ रतीबामी !*
*दन्त गए मुख के उखरे*
*नखरे न गए सु खरो खर कामी !!*
*कम्पत देह सनेह सु दम्पति*
*सम्पति जपत है निशि जामी !*
*सुन्दर अन्तहु भौन तज्यो*
*न भज्यो भगवन्त सु लौनहरामी !!*
*अर्थात्:--* मनुष्य की गर्दन हिलने लगती है, खाल लटकने लगती है, कमर झुक जाती है, बाल सफ़ेद हो जाते हैं, तो भी स्त्री के साथ भोग करता है | मुंह के दांत उखड जाते हैं, फिर भी कामी गधे के नखरे नहीं जाते, देह कांपती है; पर स्त्री से प्रीति रखता है और रात-दिन धन का जाप करता है | अन्त में घर छोड़ता है, पर नमकहराम मालिक का भजन नहीं करता !
*सारांश:--*
*मन के मनही मांहि, मनोरथ वृद्ध भये सब !*
*निज अंगन में नाश भयो, वह यौवनहु अब !!*
*विद्या है गयी बाँझ, बूझवारे नहीं दीसत !*
*दौरयो आवत काल, कोपकर दशनन पीसत !!*
*कबहुँ नहिं पूजे प्रीति सों, चक्रपाणि प्रभु के चरण !*
*भवबन्धन काटे कौन अब, अजहुँ गहरे हरि शरण !!*
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*तृषा शुष्यत्यास्ये पिबति सलिलं स्वादु सुरभि*
*क्षुधार्तः सञ्शालीन्कवलयति शाकादिवाळितां !*
*प्रदीप्ते कामाग्नौ सुदृढतरमाश्लिष्यति वधूं*
*प्रतीकारो व्याधेः सुखमिति विपर्यस्यति जनः !! ९१ !!*
*अर्थात्:-* जब मनुष्य का कण्ठ प्यास से सूखने लगता है, तब वह शीतल जल पीता है; जब उसे भूख लगती है, तब वह साग और कढ़ी प्रभृति के संग चावल खाता है; जब उसकी कामाग्नि तेज़ होती है तब वह स्त्री को ज़ोर से गले लगाता है; विचार कर देखने से मालूम होता है, कि ये सब बीमारियों की एक-एक दवा है; परन्तु लोग इन्हे भूल से सुख समान मानते हैं |
*अपना भाव:--*
प्यास रोग की दवा शीतल जल है *अर्थात् शीतल जल से तृष्णा नाश होती है |* क्षुधारोग की दवा रोटी-भात और साग-दाल प्रभृति हैं; *अर्थात्:- भात-दाल प्रभृति से भूख रोग नाश होता है !* कामाग्नि भी एक रोग है, उसके शान्त करने का उपाय स्त्री को छाती से लगाना है ! *अर्थात्:- स्त्री का आलिङ्गन करने से या चिपटाने से काम की आग ठण्डी हो जाती है | ( दाह ज्वर में षोडशी कामिनी के शरीर में चन्दन लगाकर चिपटने से बहुत लाभ होता है )* इन बातों पर विचार करने से साफ़ मालूम होता है, कि शीतल जल-पान, भिन्न-भिन्न प्रकार के भोजन और स्त्रियों का आलिङ्गन प्रभृति तृषा, क्षुधा और कामाग्नि प्रभृति रोगों की औषधियां हैं | *इनको सुख समझना भूल नहीं तो क्या है ?*
*सारांश:--*
*प्यास लगे जब पान करत, शीतल सुमिष्ट जल !*
*भूख लगे तब खात, भात-घृत दूध और फल !!*
*बढ़त काम की आगि, तबहिं नववधू संग रति !*
*ऐसे करत विलास, होत विपरीत दैव गति !!*
*सब जीव जगत के दिन भरत, खात पियत भोगहु करत !*
*ये महारोग तीनो प्रबल, बिना मिटाये नहिं मिटत !!*
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" पञ्चपञ्चाशत्तमो भाग: !!*
*शेष अगले भाग में:--*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
प्रवक्ता
श्रीमद्भागवत/श्रीरामकथा
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्याजी
(उत्तर-प्रदेश)
9935328830
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