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*‼️ भगवत्कृपा हि केवलम् ‼️*
🚩 *सनातन परिवार* 🚩
*की प्रस्तुति*
🌼 *वैराग्य शतकम्* 🌼
🌹 *भाग - छप्पनवाँ* 🌹
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*गताँक से आगे :---*
*स्नात्वा गाङ्गैः पयोभिः शुचिकुसुमफलैरर्चयित्वा विभो*
*त्वां ध्येये ध्यानं नियोज्य क्षितिधरकुहरग्रावपर्येकमूले !*
*आत्मारामः फलाशी गुरुवचनरतस्त्वत्प्रसादात्स्मरारे*
*दुःखं मोक्ष्ये कदाहं तब चरणरतो ध्यानमार्गैकनिष्ठ !! ९२ !!*
*अर्थात् :- हे शिव ! हे कामारि ! गंगा स्नान करके तुझ पर पवित्र फल-फूल चढ़ाता हुआ, तेरी पूजा करता हुआ, पर्वत की गुफा में शिला पर बैठा हुआ, अपने ही आत्मा में मग्न होता हुआ, वन-फल खाता हुआ, गुरु की आज्ञानुसार तेरे ही चरणों का ध्यान करता हुआ कब मैं इन संसारी दुखों से छुटकारा पाउँगा ?
*अपना भाव:--*
लोग तरह-तरह के पूजा , जप - तप , अनुष्ठान करते हैं | यहां तक कि संसार का त्याग करके बैरागी हो जाते हैं *परंतु उनके मन में जो संसार बसा है उसका त्याग नहीं कर पाते जब तक मन में बसे हुए संसार का त्याग नहीं किया जाएगा तब तक भौतिक संसार का त्याग करने से कुछ भी नहीं होने वाला है* जिस प्रकार नाव पानी में ही चलती है परंतु पानी नाव में भर जाने पर वह नाव पानी में डूब जाती है ! *उसी प्रकार सभी मनुष्य रहते तो संसार में ही हैं परंतु डूबता वही है जिसके मन में संसार (सांसारिकता) समाहित हो जाता है !* हे भगवान दया करिये कि वह दिन जल्दी आये कि हम संसार में रहते हुए भी सांसारिकता में न फंसे !
*सारांश:--*
*न रसेवा तजि, ब्रह्म भजि, गुरुचरणन चित लाय !*
*कब गंगातट ध्यान धर, पूजोंगो शिव पाय? !!*
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*शय्या शैलशिला गृहं गिरिगुहा वस्त्रं तरुणं त्वचः*
*सारंगाः सुहृदो ननु क्षितिरुहां वृत्तिः फलैः कमलैः !*
*येषां निर्झरम्बुपानमुचितं रत्येव विद्याङ्गना*
*मन्ये ते परमेश्वराः शिरसि यैर्बद्धो न सेवांजलिः !! ९२ !!*
*अर्थात्:-* मैं उनको परमेश्वर समझता हूँ, जो किसी के सामने मस्तक नहीं नवाते, जो पर्वत की शिला को ही अपनी शय्या समझते हैं, जो गुफा को ही अपना घर मानते हैं, जो वृक्षों की छालों को ही अपने वस्त्र और जंगली हिरणो को ही अपने मित्र समझते हैं, वृक्षों के कोमल फलों से ही उदार की अग्नि को शान्त करते हैं, जो प्राकृतिक झरनो का जल पीते हैं और जो विद्या को ही अपनी प्राण प्यारी समझते हैं |
*अपना भाव:---*
जो किसी चीज़ की चाह नहीं रखते, वे किसी की परवा नहीं करते, वे किसी के सामने मस्तक नहीं नवाते; *जिनकी वासनाओं का अन्त नहीं होता, वे ही जने-जने के सामने सर झुकाते हैं ! जो संसार के दास नहीं, वे सचमुच ही देवता हैं |* जो मनुष्य संसार का दास नहीं - जो संसार में श्वान के समान नहीं रहता वह देवताओं से कहीं ऊंचा है | देवता उसकी बराबरी नहीं कर सकते | *जिसमें सांसारिक वासनाओं का लेश न हो, उस मनुष्य और देवताओं में कोई भेद नहीं !* सच्चे महात्मा वन और पर्वतों को छोड़कर दुनिया में कभी नहीं आते; वे मांगकर नहीं खाते; उन्हें वन में ही जो कुछ मिल जाता है, वही खा लेते हैं |
*कबीर साहब ने भी कहा है -*
*अनमाँग्या उत्तम कह्यो, माध्यम माँगि जो लेय !*
*कहे कबीर निकृष्ट सो, पर घर धरना देय !!*
*उत्तम भीख जो अजगरी, सुनि लीजौ निज बैन !*
*कहै कबीर ताके गहे, महा परम सुख चैन !!*
महापुरुष भगवान् के भरोसे रहते हैं, इसलिए उन्हें उनकी जरुरत की चीज़ उनके स्थान पर ही मिल जाती है | *वे संसार रुपी काजल की कोठरी में आकर कालिख लगाना पसन्द नहीं करते |* संसारी लोगों के साथ मिलने जुलने में भलाई नहीं | संसार से दूर रहना ही भला | क्योंकि मनुष्य जैसे आदमियों को देखता और जैसों की सङ्गति करता है, वैसा ही हो जाता है | *रागियों की सङ्गति से वैरागी भी रागी या विषय-भोगी हो जाता है | जल और वृक्षों के पत्ते खाने वाले ऋषि स्त्रियों के देखने मात्र से अपने तप से हीन हो गए |* इसीलिए शास्त्रों में लिखा है कि सन्यासी संसारियों से दूर रहे | वास्तविक महापुरुष जो सच्चे ब्रह्मज्ञानी और रासायनिक हैं; किसी के भी द्वार पर नहीं जाते | *जिसे कुछ कामना होती है, वही किसी के द्वार पर जाता है | कामनाहीन पुरुष कभी किसी के पास नहीं जाता । सच्चे महात्मा संसारियों से अपनी जान छुपाते हैं |*
*इसी पर दो दृष्टान्त प्रस्तुत है:--*
*१*
एक नगर के बाहर वन में दो बड़े ही त्यागी महात्मा रहते थे , राजा ने चाहा कि मैं उनसे मिलूं | राजा अपने परिवार सहित उनसे मिलने गया | महात्माओं ने सोचा - यह तो बुरी बला लगी | इसे सदा को टालना चाहिए | आज यह आया है, कल नगर भर आवेगा | फिर हम तो भजन ही न कर सकेंगे | *जब राजा पास पहुंचा, तो वे आपस में लड़ने लगे |* एक बोला - "तूने मेरी रोटी खाली" , दुसरे ने कहा - "तूने भी तो कल मेरी खा ली थी" | *यह देखकर राजा को घृणा हो गयी और वह लौट आया |* इस तरह महात्माओं के एकान्तवास में विघ्न नहीं पड़ा |
*२*
एक महात्मा कहीं से आकर काशी में रह गए | दस पांच वर्ष बाद अनेक लोग उन्हें जान गए और उन्हें अपने-अपने घर भोजन के लिए ले जाने लगे | *महात्मा ने देखा कि, घरों में जाने से विक्षेप होता है, इसलिए उन्होंने अपनी लंगोटी ही उतारकर फेंक दी, कि नंगे रहने से लोग घरों पर न ले जाएंगे | पर फल उल्टा हुआ, उनकी महिमा और भी बढ़ गयी |* अब तो बड़े-बड़े राजा, रईस और जमींदार उनके दर्शन को आने लगे | *उनका सारा समय अमीरों से मिलने में ही बीतने लगा |* इतने में एक और महात्मा आये और उनसे एकान्त में पुछा - "क्या हाल है ?" महात्मा ने कहा - "बवासीर से मरते हैं ! " आगन्तुक महात्मा ने कहा - "लोग तो आपको सिद्ध कहते हैं ?" महात्मा ने कहा - "कहा करें, लोग मूर्ख हैं | *हमारे चित्त में तो वासनाएं भरी हैं, न जाने हमें किस योनि में जन्म लेना होगा ? हमारा तो सारा वैराग्य इन धनियों की सङ्गति में ही नष्ट हो गया | सच है, निवृत्ति मार्ग वालों को प्रवृत्ति मार्गवालों की सङ्गति करना अच्छा नहीं |*
*सारांश:--*
*बसैं गुहागिरि, शुचित शिला शय्या मनमानी !*
*वृक्षवकल के वसन, स्वच्छ सुरसरिको पानी !!*
*बाणमृग जिनके मित्र, वृक्षफल भोजन जिसके !*
*विद्या जिनकी नारि, नहीं सुरपति सभ तिनके !!*
*ते लगत ईश सम मनुज मोहि, तनशुचि ऐसे जग भये !*
*जे पर सेवा के काज को, हाथ नहीं जोरत नए !!*
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" षट्पञ्चाशत्तमो भाग: !!*
*शेष अगले भाग में:--*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
प्रवक्ता
श्रीमद्भागवत/श्रीरामकथा
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्याजी
(उत्तर-प्रदेश)
9935328830
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