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*‼️ भगवत्कृपा हि केवलम् ‼️*
🚩 *सनातन परिवार* 🚩
*की प्रस्तुति*
🌼 *वैराग्य शतकम्* 🌼
🌹 *भाग - अट्ठावनवाँ* 🌹
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*गताँक से आगे :---*
*महेश्वरे वा जगतामधीश्वरे जनार्दने वा जगदन्तरात्मनि !*
*तयोर्न भेदप्रतिपत्तिरस्ति मे तथापि भक्तिस्तरुणेन्दुशेखरे !! ९५ !!*
*अर्थात्:-* यद्यपि मुझे विश्वेश्वर शिव और सर्वात्मन विष्णु में कोई भेद नहीं दीखता; तथापि मेरा मन उन्ही की ओर झुकता है, जिनके मस्तक में तरुण चन्द्रमा विराजमान है; अर्थात मैं शिव को ही चाहता हूँ |
*अपना भाव:--*
विष्णु और शिव में कोई भेद नहीं, एक ही परमात्मा के अलग अलग नाम हैं, *वही कृष्ण हैं, वही रघुनाथ हैं, वही राम हैं और वही शिव हैं !* पर फिर भी; जिस नाम का आश्रय ले लिया उसी का भरोसा करना ठीक है | मन भटकाना अच्छा नहीं | *एक बार गोस्वामी तुलसीदास जी वृन्दावन गए | वहां उन्हें भगवान् कृष्ण के दर्शन हुए | भगवान् की बांकी झांकी देखकर गोस्वामी जी मुग्ध हो गए, पर उन्होंने उनको सिर न नवाया* क्योंकि उनके इष्टदेव रामचन्द्र जी थे |
उन्होंने उस समय कहा -
*कहा कहूँ छवि आज की, भले बने हो नाथ !*
*तुलसी मस्तक जब नवै, धनुषबाण लेयो हाथ !!*
*अर्थात्:--* आपकी छवि आज भी बहुत मनोमुग्धकर है, पर मैं तो आपको तभी प्रणाम करूँगा, जब आप धनुष-बाण हाथ में लेकर रामचन्द्र बनोगे | *भगवान् को तत्काल रामरूप धर धनुष-बाण हाथ में लेना पड़ा |*
*कृत मुरली कृत चन्द्रिका कृत गोपियन के साथ !*
*अपने जन के कारने श्रीकृष्ण बने रघुनाथ !!*
यह काम भगवान् को भक्त की दृढ़ता देखकर करना पड़ा |
*प्रीति पपहिये की सच्ची और आदर्श है |वह चाहे प्यासा मर जाए, पर मेघ के सिवा किसी भी जलाशय का जल नहीं पीता |*
*"उत्तर चातकाष्टक" में लिखा है -*
*पयोद हे ! वारि ददासि वा न वा !*
*तवडेकचित्तः पुनरेष चातकः !!*
*वरं महत्या म्रियते पिपासया !*
*तथापि नान्यस्य करोत्युपासनाम् !!*
*अर्थात:-* हे मेघ ! तू जल दे चाहे न दे, चातक तो तेरा ही आश्रय रखता है | घोर प्यास से भले ही मर जाए, पर वह दुसरे की उपासना नहीं करता |
*गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है -*
*चातक घन तजि दूसरे, जियत न नाई नारि !*
*मरत न मांगे अर्घजल, सुरसरिहु को वारि !!*
*व्याधा बधो पपीहरा, परो गंगजल जाय !*
*चोंच मूँदि पीवे नहीं, धिक् पीवन प्रण जाय !!*
*अर्थात्:-* चातक ने मेघ को छोड़ और किसी को अपनी ज़िन्दगी में सर न नवाया | मरते समय गंगा का जल भी ग्रहण न किया | किसी शिकारी ने किसी चातक को मारा, वह गंगाजी में गिर पड़ा, प्यास के मारे घबरा रहा था, पर गंगाजल नहीं पीता था | उसने उलटी चोंच बन्द कर ली; कि कहीं जल मुख में न चला जाय और मेरा प्रण टूट जाय | वाह वाह ! प्रीति और भक्ति हो तो ऐसी ही हो ।
*सारांश यह है, कि भगवान् के भी जिस नाम से प्रेम हो, उसे छोड़ कर दूसरे से प्रेम न करना चाहिए | एक ही पति की स्त्री होने में भलाई है | जिसके अनेक पति होते हैं, उसका भला नहीं होता |* पूजा करनी है तो सबकी करो परंतु अपने ईष्ट का ही दरशन सबमें करना चाहिए !
*पतिव्रता को सुख घना, जाके पति है एक !*
*मन मैली व्यभिचारिणी, जाके पती अनेक !!*
*पतिव्रता पति को भजै, और न अन्य सुहाय !*
*सिंह बचा जो लंघना, तो भी घास न खाय !!*
*"कबिरा" सीप समुद्र की, रटे पियास पियास !*
*सकल बूँद को न गिनै, स्वाति बूँद की आस !!*
*प्रीति रीति तुझ सों मेरे, बहु गुनियाला कन्त !*
*जो हँसि बोलूं और सूँ, तो नील रंगाऊं दन्त !!*
*अर्थात्:-* पतिव्रता, जिसके एक पति होता है, सदा सुखी रहती है; किन्तु अनेक पति वाली व्यभिचारिणी सदा दुखी रहती है | पतिव्रता सदा अपने पति को ही चाहती है; उसे दूसरा अच्छा नहीं लगता | *सिंह का बच्चा लंघन पर लंघन करने पर भी घास नहीं खाता |* समुद्र की सीप प्यास ही प्यास रटा करती है; कितनी ही बूंदे क्यों न गिरें, *उसे तो स्वाति की बूँद ही प्यारी लगती है |* मेरे गुणनिधान कन्त ! मेरी प्रीती तुझसे है | जो मैं दुसरे से हंसकर बोलूं तो मेरा काला मुंह हो ।
*सारांश:--*
*नाहिन शिव अरु विष्णु में, सूझै अन्तर मोय !*
*तदपि चन्द्रशेखर लखत, प्रीति अधिक कछु होय !!*
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" अष्टपञ्चाशत्तमो भाग: !!*
*शेष अगले भाग में:--*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
प्रवक्ता
श्रीमद्भागवत/श्रीरामकथा
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्याजी
(उत्तर-प्रदेश)
9935328830
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