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*‼️ भगवत्कृपा हि केवलम् ‼️*
🚩 *सनातन परिवार* 🚩
*की प्रस्तुति*
🌼 *वैराग्य शतकम्* 🌼
🌹 *भाग - साठवाँ* 🌹
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*गताँक से आगे :---*
*कौपीनं शतखण्डजर्ज्जरतरं कन्था पुनस्तादृशी*
*निश्चिन्तम् सुखसाध्यभैक्ष्यमशनं शय्या श्मशाने वने !*
*मित्रामित्र समानताऽतिविमला चिन्ताऽथशून्यालये*
*ध्वस्ता शेषमदप्रमाद मुदितो योगी सुखं तिष्ठति !! ९७ !!*
*अर्थात्:-* वही योगी सुखी है, जो एकदम से फटी-पुरानी सैकड़ो चीथड़ों से बनी कोपीन पहनता है और वैसी ही गुदड़ी ओढ़ता है, जिसके पास चिन्ता नहीं फटकती, जो सुख से मिला हुआ भिक्षान्न खाता है, जो श्मशान भूमि या वन में सो रहता है, जो मित्र और शत्रुओं को समान समझता है, जो सूनी झोंपड़ी में ध्यान करता है और जिसके मद और प्रमाद सम्पूर्ण रूप से नष्ट हो गए हैं |
*अपना भाव:--*
फटी-पुरानी कोपीन पहनने, चीथड़ों की गुदड़ी ओढ़ने, निश्चिन्त रहने, सुख से मिले भिक्षान्न के खाने, मरघट या जंगल में सो रहने, दोस्त और दुश्मन को बराबर समझने और नितान्त सूने घर में पवित्र ध्यान करने से जिसके मद और प्रमाद नाश हो गए हैं, वही योगी संसार में सुखी है | ऐसी महापुरुषों को किसी की इच्छा नहीं होती | *जिसे किसी चीज़ की इच्छा नहीं, उसके किसकी गरज़ ?* जो मित्र और शत्रु को एक नज़र से देखते हैं, जहाँ जगह पाते हैं वही पड़ रहते हैं, वहीँ खा लेते हैं, *उन्हें न चिन्ता राक्षसी सताती है, न उन्हें घमण्ड होता है और न उन्हें मस्ती आती है , वे तो ब्रह्म के ध्यान में मग्न रहते हैं, इसलिए दुःख उनके पास नहीं आता; वे सदा सुख में दिन बिताते हैं |* जो लोग बढ़िया बढ़िया कपडे पहनते हैं, शाल-दुशाले ओढ़ते है, अच्छे-अच्छे स्वादिष्ट भोजन करते हैं, मखमली गद्दे-तकियों पर सोते हैं, किसी को दोस्त और किसी को दुश्मन समझते हैं, ब्रह्म का ध्यान नहीं करते, उनको चिन्ता लगी ही रहती है | *देखने में वे सुखी मालूम होते हैं, पर भीतर ही भीतर उनकी आत्मा जला करती है ! चिन्ता उनको खोखला कर डालती है |* क्योंकि बढ़िया बढ़िया भोजन और वस्त्रों के लिए उन्हें सदा उपाय करने पड़ते हैं और उनकी रक्षा की चिन्ता करनी पड़ती है | ऐसो के ही मित्र और शत्रु होते हैं | जिनका वे भला करते हैं, जिन्हे कुछ सहायता देते हैं अथवा जिन्हे उनसे कुछ मिलने की आशा रहती है, वे मित्र बन जाते हैं; पर जिनका स्वार्थ साधन नहीं होता, जो उनके ठाठ-बाठ और वैभव को फूटी आँख नहीं देख सकते, वे उनके नाश की चेष्टा करते हैं और उनके दुश्मन हो जाते हैं | इसलिए उन्हें रात-दिन शत्रुओं से बदला लेने और उन्हें पराजित करने की फ़िक्र के मारे क्षणभर भी सुख की नींद नहीं आती | *अपने वैभव और ऐश्वर्य को देखकर उन्हें स्वतः ही अभिमान हो आता है | अभिमान के नशे में वो अनर्थ करने लगते हैं !* इससे उन्हें सदा भयभीत रहना पड़ता है | *बहुत क्या कहें; जिनको आप अमीर देखते हैं, जिनको आप स्त्री-पुरुष, धन-रत्न, गाडी-घोड़े, मोटर प्रभृति से सुखी देखते हैं, वे वास्तव में ज़रा भी सुखी नहीं | सुखी वही है जिसे किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं, जिसे किसी से वैर या प्रीति नहीं, जिसे ज़रा भी अभिमान नहीं, जिसकी इन्द्रियां वश में हैं, जो कभी चिन्ता को पास नहीं आने देता और जो ब्रह्मानन्द में ही मग्न रहता है |* भला राजा महाराजा और धनी लोग इस सुख को कैसे पा सकते हैं ? *अगर सुखी होना चाहो, तो संसार को त्याग कर, एकदम से निश्चिन्त होकर, परमात्मा के सिवा किसी चीज़ की चिन्ता न करो |*
जो लोग संसार त्यागें, वह सच्चे मन से त्यागें; ढोंग करने से कोई लाभ नहीं ` *आजकल ऐसे बनावटी महात्मा बहुत देखने में आते हैं, जो जटा-जूट बढ़ा लेते हैं, ख़ाक रमा लेते हैं आँखें लाल कर लेते हैं, गंगा में पहरों खड़े रहते हैं, शूलों की शय्या पर सोते हैं, पर उनकी आशा और तृष्णा नहीं जाती |* वे देखने में तो कष्ट उठाते हैं, कर्मेन्द्रियों से उनका काम नहीं लेते; पर मन और ज्ञानेन्द्रियों को अपने वश में नहीं करते, वासनाओं का त्याग नहीं करते, इससे उनका जीवन वृथा जाता है |
*ऐसे लोगों के सम्बन्ध में महात्मा कबीर कहते हैं -*
*निर्बन्धन बंधा रहे, बंध्या निरबन्ध होय !*
*कर्म करे करता नहीं, दास कहावे सोय !!*
*कृष्ण भगवान्* गीता के तीसरे अध्याय के छठे श्लोक में कहते हैं -
*कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् !*
*इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते !!*
*अर्थात:-* जो मनुष्य कर्मेन्द्रियों को वश में करके कुछ काम तो नहीं करता; किन्तु मन में इन्द्रियों के विषयों का ध्यान किया करता है, *वह मनुष्य झूठा और पाखण्डी है |*
मतलब यह है, कि मनुष्यों को हाथ, पाँव, मुंह, गुदा और लिङ्ग को वश में कर लेने और इनसे कोई काम न लेने से कोई लाभ नहीं; इनसे तो इनका कोई काम लेना ही चाहिए; किन्तु आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा को वश में करना चाहिए | आँख, कान आदि पांच इन्द्रियों को वश में करना या अपने अपने विषयों से रोकना जरूरी है | बहुत से लोग, दिखाने में सिद्ध बनने के लिए, हाथ-पाँव प्रभृति कर्मेन्द्रियों से काम नहीं लेते, किन्तु मन में भाँती भाँती के इन्द्रिय विषयों की इच्छा किया करते हैं | *भगवान् कृष्ण ऐसों को पाखण्डी कहते हैं !*
सबसे अच्छा और सिद्ध पुरुष वही है जो ज़ाहिरा तो काम करता है, किन्तु अन्दर से मन और ज्ञानेन्द्रियों को विषय वासना से रोकता है |
*भगवान ने गीता में कहा है -*
*यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन !*
*कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते !!*
*अर्थात्:-* हे अर्जुन ! जो मन से आँख कान नाक आदि इन्द्रियों को वश में करके और इन्द्रियों को विषयों में न लगा कर *"कर्मयोग"* करता है, वही श्रेष्ठ है |
*रहीम* ने यही बात कैसी अच्छी तरह कही है -
*जो "रहीम" मन हाथ है, मनसा कहुँ किन जाहिं !*
*जल में छाया जो परी, काया भीजत नाहिं !!*
*तन को योगी सब करें, मन को विरला कोय !*
*सहजे सब विधि पाइये, जो मन योगी होय !!*
*अर्थात्:-* ढोंग करने से कोई लाभ नहीं | जिनका दिल साफ़ है, जिनके दिल से वासनाएं निकल गयी है, उन्हें नहाने धोने प्रभृति दिखाऊ कामों या दुकानदारी की जरुरत नहीं है | *मन यदि हाथ में है तो मनसा कहीं क्यों न जाय, हानि नहीं; क्योंकि जल में शरीर की परछाईं पड़ने से शरीर नहीं भीजता !* लोग शरीर को जोगी करते हैं - तिलक छापे लगाते हैं, जटाजूट बढ़ाते हैं, नेत्रों को सुर्ख करते हैं, भभूत मलते हैं, कोपीन बांधते हैं; पर मन को कोई विरला ही जोगी करता है | *लोग ऊपर से योगी बन जाते हैं, पर मन उनका विषय-भोगों में लगा रहता है !* शरीर से चाहे जो काम क्यों न किये जाएँ, पर मन में विषयों की कामना न रहे; यानि शरीर जोगी न हो, मन जोगी हो जाये; तो सिद्धि या मोक्ष मिलने में संदेह नहीं | *सारांश यह कि, मन के योगी होने से ही ईश्वर मिलता है |*
*अपना भाव:--*
मन जब वासना-हीन हो जाता है, तब वह सूखी दिया-सलाई के समान हो जाता है | *सूखी दिया-सलाई जिस तरह झट जल उठती है, पर गीली नहीं जलती; उसी तरह वासनाहीन मन पर परमात्मा का रंग जल्दी चढ़ता है , किन्तु वासनायुक्त मन पर हरगिज़ नहीं |* इसलिए मन को वासनाहीन करना चाहिए | साथ ही भक्ति भी निष्काम करनी चाहिए | ईश्वर से वरदान न मांगना चाहिए | *कामना रखकर भक्ति करने से कामना निश्चय ही पूर्ण होती है - ईश्वर भक्त की इच्छा अवश्य पूरी करता है; पर वैसी भक्ति से परिणाम में भय है ; क्योंकि फलों के भोगने के लिए जन्मना और मरना पड़ता है | किन्तु जो लोग बिना किसी इच्छा के परमात्मा की भक्ति करते हैं, वे मुक्ति लाभ करते हैं - उन्हें जन्म लेना और मरना नहीं पड़ता |*
जब साधक के मन में कामना नहीं रहती, तब उसके मन से ईर्ष्या-द्वेष और मित्रता-शत्रुता सब दूर हो जाती है | वह सब जगत को एक दृष्टि से देखता है | वह मनुष्यों की आशा नहीं रखता, केवल परमात्मा की शरण ले लेता है; इसलिए उसे सहज में मुक्ति मिल जाती है |
*गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है -*
*तब लगि हमते सब बड़े, जब लगि है कुछ चाह !*
*चाह-रहित कह को अधिक, पाय परमपद थाह !!*
*अर्थात्:--* जब तक मन में ज़रा भी आशा रहती है, तभी तक मनुष्य किसी को बड़ा मानता है और किसी का दास बनता है; जब आशा नहीं रहती तब वह सबको समान समझता है और सबका आसरा छोड़ एकमात्र परमात्मा का आसरा पकड़ता है; इससे उसको भवबन्धन से छुटकारा मिलकर परमपद की प्राप्ति हो जाती है |
*सारांश:--*
*कन्था अरु कोपीन, फटी पुनि महा पुरानी !*
*बिना याचना भीख, नींद मरघट मनमानी !!*
*रह जग सों निश्चिन्त, फिरै जितहि मन आवै !*
*राखे चित कू शान्त, अनुचित नहीं भाषै !!*
*जो रहे लीन अस ब्रह्म में, सोवत अरु जागत यदा !*
*है राज तुच्छ तिहुँ भुवन को, ऐसे पुरुषन को सदा !!*
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" षष्टितमो भाग: !!*
*शेष अगले भाग में:--*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
प्रवक्ता
श्रीमद्भागवत/श्रीरामकथा
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्याजी
(उत्तर-प्रदेश)
9935328830
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