*इस धरा धाम पर आ कर जब मनुष्य सज्जनों के साथ सत्संग करता है , तब उसे आत्मा परमात्मा के विषय में ज्ञान होता है तब वह आत्मोपलब्धि के विषय में आतुर हो जाता है | उसके मनोमस्तिष्क में अनगिनत प्रश्न उठने लगते हैं | ईश्वर कौन है ? कहां है ? कैसा है ? ईश्वर को कहाँ खोजें ? कैसे खोजें ? मनुष्य विचार करने लगता है कि मैंने पूजा - पाठ किया , अनुष्ठान कराया मैं देवालयों में गया , तीर्थों में भी हो आया पर फिर भी मुझे आत्मोउपलब्धि नहीं हो सकी , मुझे परमात्मा की अनुभूति नहीं हो सकी , मुझे आत्म साक्षात्कार नहीं हो सका ! आखिर क्यों ? क्योंकि शास्त्रों में भी तीर्थयात्रा , तीर्थदर्शन , देवदर्शन आदि की बड़ी महिमा गाई गई है | पूजा की , प्रार्थना की महिमा का वर्णन पाया जाता है | मनुष्य विचार करता है कि मैंने तो यह सारे धार्मिक कृत्य कर लिए फिर भी मुझे आत्मोपलब्धि आज तक नहीं हो सकी तो इसका क्या कारण है ? यह सारे सहज और स्वाभाविक प्रश्न हैं जो प्रायः मनुष्य के मन मस्तिष्क में उठा करते हैं | सारे साधन करने के बाद भी यदि परिणाम नहीं मिलता है तो मनुष्य को विचार करना चाहिए कि शायद इस कार्य को संपन्न करने में हमसे कहीं चूक हो रही है | जीवन का अंतिम लक्ष्य मुक्ति एवं आनंद की प्राप्ति है , इसी की प्राप्ति के लिए मनुष्य धर्म एवं अध्यात्म के मार्ग पर चलता है परंतु फिर भी उसे जब आत्म साक्षात्कार नहीं हो पाता तो यह मान लेना चाहिए कि दिखाने के लिए तो वह आध्यात्म के मार्ग पर चल रहा है परंतु उसके चलने में अवश्य कोई खोट है , जिसके कारण वह अध्यात्म के मार्ग पर चलते हुए भी अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच पा रहा है | देवालयों में , तीर्थों में जाकर ईश्वर को खोजने वाला मनुष्य अपने अंदर झांक कर कभी देखना नहीं चाहता यही कारण है कि उसे ना तो परमात्मा की अनुभूति हो पाती है और ना ही परमानंद की प्राप्ति | यदि परमानंद की प्राप्ति करना है , परमात्मा की अनुभूति प्राप्त करना है तो सर्वप्रथम मनुष्य को अपनी आत्मा का दर्शन करना होगा क्योंकि बिना आत्मदर्शन के परमात्मदर्शन नहीं हो सकता |*
*आज का मनुष्य धर्म एवं अध्यात्म के मार्ग पर चलते हुए दिखाई तो पड़ता है परंतु वह जहां है वहीं रह जाता है | उसकी यात्रा एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाती है तो इसका एक ही कारण है कि आज का मनुष्य आसक्ति की रस्सी से बंधा हुआ है | इस बन्धन में बंधे रहकर ही वह परमानंद की प्राप्ति करना चाह रहा है जो कि सम्भव नहीं है | आज मनुष्य यात्रा तो खूब कर रहा है परंतु उसकी यात्रा बाहर बाहर की ही हो रही है जबकि मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि बाहर की यात्रा करके हमको तब तक कुछ नहीं प्राप्त हो सकता है जब तक हम अपने अंदर की यात्रा नहीं करेंगे | अंतर्जगत की यात्रा नहीं करेंगे | एक विशेष बात ध्यान रखने योग्य है कि हमें बाहर कुछ भी नहीं प्राप्त होना है , बाहर की यात्रा हमें संसार में ले जाती है जबकि अंतर्जगत की यात्रा हमें आत्मा से जोड़ती है | हम ईश्वर को तीर्थों एवं मंदिरों में खोजा करते हैं जबकि ईश्वर कहीं बाहर नहीं बल्कि हमारे भीतर ही उपस्थित है | विचार कीजिए आत्मा ही पर शुद्ध होकर , पुनीत व पावन हो करके परमात्मा हो जाती है | स्वयं को आध्यात्मिक कहने वाले कुछ चिन्हपूजा , कर्मकांड , अनुष्ठान आदि करके स्वयं को आध्यात्मिक दिखाने का प्रयास अवश्य करते हैं परंतु वह स्वयं को संसार के बंधन से मुक्त नहीं कर पाते | संसार का बंधन क्या है ? संसार के दुर्गुण | जब तक संसार के दुर्गुणों का त्याग नहीं किया जाएगा तब तक यह मान लीजिए कि देवालयों में जाकर , भी तीर्थों में जाकर भी , धार्मिक कर्मकांड को करते हुए भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं | आपने किसी मार्ग की कोई यात्रा ही नहीं की | आध्यात्म का सीधा सा अर्थ होता है अन्तर्जगत की यात्रा , जो कि आज का मनुष्य नहीं कर पा रहा है तो भला परमात्मा की अनुभूति एवं परमानंद की प्राप्ति कैसे हो सकती है !*
*आत्मासाम्राज्य में प्रवेश करने का मार्ग जप , तप , पूजा , पाठ ही है इसी के निरंतर अभ्यास से ही मनुष्य संसार के दुर्गुणों से दूर हो सकता है ! संसार की आसक्तियां (दुर्गुण) जब तक मनुष्य को घेरे रहेंगी तब तक न तो वह धार्मिक हो सकता है और न ही आध्यात्मिक |*