*इस संसार में जन्म लेने के बाद मनुष्य के अनेकों मित्र एवं शत्रु बनते देखे गए हैं , परंतु मनुष्य अपने सबसे बड़े शत्रु को पहचान नहीं पाता है | मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु कहीं बाहर नहीं बल्कि उसके स्वयं के भीतर उत्पन्न होने वाला अहंकार है | इसी अहंकार के कारण मनुष्य जीवन भर अनेक सुविधाएं होने के बाद भी दुखी ही रहता है | जब मनुष्य के स्वभाव में अहंकार मिश्रित हो जाता है तो वह स्वयं को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उत्कृष्ट मानने लगता है | अहंकार के मद में चूर होकर के मनुष्य दूसरों के अनुभव एवं ज्ञान का लाभ नहीं ले पाता है क्योंकि दूसरों की संगत में बैठने एवं उनसे कुछ सलाह लेने में मनुष्य का अहंकार आड़े आ जाता है | अहंकार मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्गुण कहा गया है यह मनुष्य को इस प्रकार अपने चक्रव्यूह में फंसाता है कि मनुष्य लाख प्रयत्न करने के बाद भी इस चक्रव्यूह से निकल पाने में सफल नहीं हो पाता है परंतु असंभव कुछ भी नहीं है | अहंकार को कैसे समाप्त किया जाय यह एक यक्ष प्रश्न बनकर सदैव से मनुष्य के समक्ष उपस्थित रहा है | अहंकार को समाप्त करने का सबसे सीधा एवं सरल मार्ग है सत्संग का | जब मनुष्य सत्संग में जाने लगता है तो उसे यह ज्ञान होता है कि यह संसार झूठा है , सब कुछ यही पर रह जाना है | राजा भर्तृहरि ने अपने नीतिशतक में बहुत सुंदर वर्णन किया है कि :-- "यदा किंचिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवं , तदा सर्वज्ञोऽसमीत्यभवदवलिप्तं मम मनः ! यदा किंचित्किंचिद्बुधजनसकाशादवगत , तदा मूर्खोस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः !! अर्थात :- जब मैं बिल्कुल ही अज्ञानी था तब मैं मदमस्त हाथी की तरह अभिमान मे अंधे होकर अपने आप को सर्वज्ञानी समझता था , लेकिन विद्वानो की संगति से जैसे-जैसे मुझे ज्ञान प्रप्त होने लगा मुझे समझ मे आ गया की मैं अज्ञानी हूँ और मेरा अहंकार जो मुझपर बुखार की तरह चढ़ा हुआ था उतर गया | नीति शतक के इस श्लोक को पढ़ने से ज्ञात होता है अहंकार को नष्ट करने का एक ही माध्यम है और वह है सत्संग | अपने बुजुर्गों एवं ज्ञानी पुरुषों की संगत करके ही इस अहंकार रूपी शत्रु को पराजित किया जा सकता है |*
*आज समस्त विश्व में जिस प्रकार मनुष्य ने विकास की ऊंचाइयों को छुआ है उसी अनुपात में मनुष्य के अहंकार में भी वृद्धि हुई है | आज जिधर देखो मनुष्य स्वयं को ही सर्वश्रेष्ठ मानना चाहता है | इस समस्त सृष्टि में मनुष्य सर्वश्रेष्ठ तो है ही परंतु स्वयं को स्वयं के द्वारा सर्वश्रेष्ठ मानना एवं दूसरों की उपेक्षा करना मनुष्य की सबसे बड़ी कमी है | आज यदि समाज में अहंकार का स्तर बढ़ा है तो उसका सीधा सा एक कारण है कि आज के लोगों ने अपने बुजुर्गों के पास बैठना बंद कर दिया है क्योंकि उन्हें ऐसा करने में अपना अपमान लगता है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" यह देख रहा हूं कि आज लोग ज्ञानियों की संगत एवं सत्संग नहीं करना चाहते हैं | अनेक सामाजिक संगठन एवं सोशल मीडिया पर चल रहे व्हाट्सएप समूहों में मुफ्त में सत्संग वितरित किया जा रहा है जिसके माध्यम से अनेकों ऐसे विषय भी सबके समक्ष रखे जा रहे हैं जिनके विषय में सोचा भी नहीं जा सकता है , परंतु आज मनुष्य इतना अभिमानी हो गया है कि उसे सत्संग में जाना बहुत छोटा कार्य लगता है | आज सत्संग सभाओं का सूनापन इसका ज्वलंत उदाहरण है | अहंकार को मानस रोग भी कहा गया है और मानस रोगों की औषधि क्षमा , दया , करुणा , प्रेम धैर्य , नम्रता आदि को कहा गया है परंतु अहंकारी व्यक्ति इन औषधियों का सेवन नहीं कर पाता जिससे उसका मानसिक रोग बढ़ता ही जाता है | अपनी भूल को यदि मनुष्य हृदय से स्वीकार करता जाय को वह इस रोग से बच सकता है परंतु आज मनुष्य अपनी भूल को स्वीकार नहीं कर पा रहा है तो इसका एक ही कारण है उसके हृदय में अहंकार ने एक सघन अंधकार का साम्राज्य फैला रखा है | अंतर्मन के अंधकार को ज्ञान ज्योति से ही दूर किया जा सकता है और ज्ञान ज्योति सत्संग एवं बुजुर्गों के अनुभवों के माध्यम से ही जलाई जा सकती है | प्रत्येक मनुष्य को समय-समय पर अपने अग्रजो एवं महान व्यक्तियों के पास बैठकर उनके अनुभवों का लाभ अवश्य लेना चाहिए इसी के माध्यम से मनुष्य अपने अहंकार पर विजय प्राप्त कर सकता है |*
*जब हम विनम्रता की थाली में , क्षमा की आरती , प्रेम का घी , दृढ़ विश्वास का नैवेद्य भगवान को समर्पित करते हैं तब प्रायश्चित की आरती जलने पर इसकी लौ में "मैं" रुपी अहंकार का राक्षस जलकर भस्म हो जाता है |*