*सनातन धर्म के धर्म ग्रंथों में वर्णित एक एक शब्द मानव मात्र को दिव्य संदेश देता है | कोई भी साहित्य उठा कर देख लिया जाय तो उसने मानव मात्र के कल्याण की भावना निहित है | आदिभाषा संस्कृत में ऐसे - ऐसे दिव्य श्लोक प्राप्त होते हैं जिनके गूढ़ार्थ बहुत ही दिव्य होते हैं | ऐसा ही एक श्लोक देखते हैं कि ईश्वर को ही सब कुछ मानते हुए प्रार्थना की गई है कि :-- "त्वमेव माता च पिता त्वमेव ! त्मेव बंधूश्चसखा त्वमेव !! त्वमेव विद्या द्रविणम् त्वमेव ! त्वमेव सर्वं मम देव देव !! अर्थात :-- हे परमात्मा तुम ही मेरे माता हो , तुम ही पिता हो तुम ही बंधु एवं तुम ही सखा हो , तुम ही मेरी विद्या हो , मेरे लिए धन भी तुम ही हो और तुम ही मेरे सब कुछ हो | सरल अर्थ तो यही होता है परंतु इसके गूढ़ार्थं पर ध्यान दिया जाय तो बहुत ही दिव्य अर्थ निकल कर आता है | इस संसार में मनुष्य सबसे पहले अपनी माता को जानता है इसलिए परमात्मा को सबसे पहले माँ कहा गया , उसके बाद जब वह माँ की गोद से निकलता है तो पिता को जानता है इसलिए परमात्मा को दूसरे स्थान पिता कहा गया | माता और पिता जब नहीं रह जाते हैं तो बंधुओं का आश्रय लेना पड़ता है इसलिए परमात्मा को बंधु कहा गया | जब बंधु - बांधव भी साथ छोड़ देते हैं तो मित्र मंडली हमारा सहयोग करती है इसलिए परमात्मा को सखा कहा गया और जब माता-पिता और संसार के रिश्ते सभी साथ छोड़ देते हैं तो मनुष्य की विद्या उसका मार्गदर्शन करती है , और जब विद्या भी नहीं होती है उसका धन मनुष्य के जीवन यापन में प्रमुख सहयोगी की भूमिका निभाता है | विचार करने की बात है कि धन को सबसे अंतिम स्थान दिया गया है | सबसे पहला स्थान माता का और सबसे अंतिम स्थान धन को दिया गया है | विचार कीजिए संस्कृत साहित्य के विद्वानों ने इतनी दूरदर्शी सोच रखते हुए इस श्लोक की रचना की | यद्यपि घन का स्थान सबके बाद में आता है और यह सत्य भी है कि पूर्व काल में संबंधों के आगे धन को कभी महत्व नहीं दिया गया | परंतु परिवर्तन सृष्टि का नियम है और आज समय परिवर्तित हो चुका है आज धन के आगे सारे संबंध गौड़ होते दिखाई पड़ रहे हैं |*
*आज के वर्तमान युग को विद्वानों ने आर्थिक युग कहा है और यह सत्य भी है जहां पूर्व काल में प्रार्थना करते हुए परमात्मा को सबसे पहले माता कहा गया और सबसे अंतिम में धन कहा गया वहीं आज धन सबसे पहले आता है | धन के आगे माता - पिता , बंधु - सखा एवं विद्या सब कुछ व्यर्थ होती दिखाई पड़ रही है | इसका कारण भी है कि आज के माता पिता अपनी संतान को संस्कार ना दे कर के वही धर्म सिखा रहे हैं जिससे कि वह धन कमा करके अपना पेट भर ले | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" ध्यानाकर्षण कराना चाहूंगा कि जो आज हो रहा है उसको बहुत पहले गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिख दिया था कि :- मातु पिता बाल्कन्ह बुलावहिं ! उदर भरहिं सोइ धर्म सिखावहिं !! और आज यही स्थिति है कि कलयुग में :-- "टका धर्म: टका कर्म: टका हि परमं तप: ! यस्य गेहे टका नास्ति् हा टका टकटकायते !! अर्थात आज के युग में धर्म-कर्म एवं सबसे बड़ी तपस्या धन ही है और जिसके घर में धन नहीं है उसके घर में हाय हाय मची हुई है | आज मनुष्य धन के आगे अपने माता-पिता को भी ठोकर मारने से नहीं चूक रहा है | परमात्मा की की गई प्रार्थना आज लोग मानने को तैयार नहीं दिख रहे हैं | पर विचार कीजिए जिसके लिए आदमी जीवन भर सारे रिश्ते नाते तोड़ देता है क्या वह धन अंत समय में उसके किसी काम आता है ? यह सत्य है कि जीवन जीने के लिए धन की आवश्यकता है परंतु मात्र धन के लिए सभी रिश्तो को ठुकरा देना बुद्धिमत्ता नहीं की जा सकती है | आज धनलिप्सा में मनुष्य मानव से दानव बनता जा रहा है | सनातन साहित्य को इसीलिए दिव्य कहा गया है क्योंकि उसमें मनुष्य को सकारात्मक शिक्षा प्राप्त होती थी | आज पुन: उस पर ध्यान देने की आवश्यकता है |*
*सनातन धर्म एवं सनातन साहित्य मनुष्य को उसके मूल कर्तव्यों के प्रति समय-समय पर सचेत करता रहा है , परंतु यदि आज ऐसी स्थिति उत्पन्न हो रही है तो उसका एक ही कारण है कि आज मनुष्य सनातन साहित्यों से दूर होता चला जा रहा है |*