*आदिकाल से मनुष्यों का सम्मान या उनका अपमान उनके कर्मों के आधार पर ही होता रहा है | मनुष्य की वाणी , उसका व्यवहार एवं उसका आचरण ही उसके जीवन को दिव्य या पतित बनाता रहा है | मनुष्य बहुत बड़ा विद्वान बन जाय परंतु उसकी वाणी में कोमलता न हो , उसकी
भाषा मर्यादित न हो एवं उसके कर्म समाज के विपरीत हों तो उसे विद्वान नहीं कहा जा सकता है | त्रेताकाल में लंकाधिपति रावण से अधिक विद्वान कोई नहीं था | त्रेता की ही बात नहीं आज तक रावण जैसा त्रिकालदर्शी एवं विद्वान कोई नहीं हुआ और न होग, ऐसा विद्वानों का मानना है | इतना विद्वान होने के बाद भी रावण ाे आचरण , उसकी वाणी एवं उसका व्यवहार विद्वता के बिल्कुल विपरीत रहा | यही कारण है कि जहां हमारे
देश भारत में विद्वानों की पूजा होती रही है वहीं रावण जैसे विद्वान को घृणित दृष्टि से देखा जाता है | क्योंकि उसका कर्म घृणित था | रावण ने अपने समक्ष सदैव दूसरों को तिनके के समान माना था | अपने अहंकार एवं अपने दुष्कर्म के कारण रावण जैसा विद्वान भी अपने संपूर्ण कुल के साथ विनाश को प्राप्त हुआ | कहने का तात्पर्य है विद्वता जब अपने मूलधर्म (विनय) का त्याग कर देती है तो वह है विद्वता अपने ही विनाश का कारण बनने लगती है , यह अकाट्य सत्य है | और भी अनेक उदाहरण हमारे इतिहास में देखने को मिल जाते हैं | यह सत्य है कि विद्योत्तमा जैसी विदुषी महिला भी अपने अहंकार के कारण ही कालिदास जैसे महामूर्ख के साथ विवाहित हो जाती है | विद्या सदैव विनय प्रदान करती है , परंतु यही विद्या जब मनुष्य को अधिक मिल जाती है तो वह विनयशील न हो करके अहंकारी हो जाता है और यही अहंकार उसके पतन का कारण बन जाता है |* *आज के युग में विद्वानों की कमी नहीं है , एक से बढ़कर एक विद्वान आज भी हमारे भारतवर्ष में विद्यमान हैं जो अपनी विद्वता के बल पर हमारे समाज का मार्गदर्शन कर रहे हैं | परंतु इन्हीं विद्वानों में कुछ विद्वान ऐसे भी हैं जो "एको$हं द्वितीयो नास्ति"की भावना से ग्रसित हो कर के रावण की तरह अपने समक्ष से सब को तिनके की समान ही मानते हैं | ऐसे विद्वान विद्वान तो होते हैं परंतु उनमें विनयशीलता बिल्कुल नहीं दिखाई पड़ती है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" ऐसे सभी विद्वानों के विषय में इतना ही कहना चाहूंगा कि :- यह सभी विद्वान उसी तरह जिसका वर्णन अपने रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने किया है | स्वयं के नाम के आगे बड़े-बड़े पदनाम लगाने वाले यह तथाकथित विद्वान मात्र किसी भी समाज में दूसरों की विद्वता की परीक्षा ले करके स्वयं को श्रेष्ठ साबित करना चाहते हैं , जो कि इनकी मूर्खता के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता है | क्योंकि जो विद्वान होता है वह विनयी होता है , परंतु ऐसे तथाकथित विद्वान अहंकार से ग्रसित हो कर के अपने समस्त क्रियाकलाप संपादित करते हैं | इन विद्वानों को लगता है कि जो
ज्ञान हमें है वह संसार में किसी को नहीं है | शायद ये विद्वान यह नहीं जानते हैं कि मनुष्य जीवन भर अपूर्ण ही रहता है पूर्ण मात्र परमात्मा है , इसके अतिरिक्त कोई नहीं | अंत में ऐसे सभी विद्वानों को प्रणाम करते हुए यही कहना चाहूंगा कि आप महान है परंतु अपने द्वारा पोषित किए जा रहे हंकार का थोड़ा शमन करें अन्यथा पतित होने में समय नहीं लगेगा |* *अहंकार मनुष्य में क्रोध उत्पन्न करता है और क्रोधी मनुष्य अंधा हो जाता है ! उसे कब कहां क्या बोलना है और कैसे कार्य करने हैं इसका विवेक नहीं रह जाता है |*