*संसार में अब तक अनेक विद्वान महापुरुष हुए हैं जिन्होंने अपने क्रिया कलापों से संसार का कल्याण करने का ही प्रयास किया है ! उनके चरित्रों का अनुसरण करके मनुष्य स्वयं पूजित होता रहा है | महापुरुषों के बताये गये मार्गों का अनुसरण करके , उनके लिखे ग्रंथों का पठन - पाठन करके ही विद्वान बनते आये महापुरुषों ने भी इस मानव जाति को एक नई दिशा देने का कार्य किया है | आचार्य चाणक्य एवं स्वामी विवेकानन्द जैसे मूर्धन्य विद्वान भी महापुरुषों की जीवनियों से प्रभावित होकर सनातन
धर्म के ग्रंथों का अध्ययन करके उनमें निर्देशित किये गये मानवीय आचरणों को स्वयं में संस्कारित किया एवं प्राप्त
ज्ञान के आधार पर उन्होंने इस समस्त संसार एक ऐसा नवीन ज्ञान देने का प्रयास किया जो कि आज तक मानव के लिए पथ प्रदर्शक का कार्य करता आ रहा है | कहने का तात्पर्य यह है कि बिना उच्च चरित्रों / आदर्शों को पढे , बिना उनके विषय में जाने हमें नवीन ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता है | मनुष्य जब विद्वान की श्रेणी में आता है तो उसके क्रियाकलापों में अभूतपूर्व परिवर्तन देखने को मिलने लगता है | विद्वता ऐसा गुण है जो मनुष्य को सज्जन बनाने का कार्य करती है , यह भी सत्य है कि यह अहंकार की जननी भी बनती देखी गयी है | परंतु जो सम्हल जाते हैं वे सज्जनता को पकड़े रहते हैं , और जो फिसल जाते हैं उन्हें अहंकार जकड़ लेता है | जिनमें झुकने का भाव नहीं होता वे वृक्ष आँधियों में टूट जाया करते हैं और झुकने वाले वृक्ष तूफान के जाने के बाद पुन: तनकर खड़े हो जाते हैं |* *आज के भौतिकवादी युग में शिक्षा का स्तर बढा है | पहले की अपेक्षा लोग अधिक विद्वान हुए हैं | परंतु विद्वता के साथ साथ उन्होंने अहंकार को भी पोषित किया है | यह अकाट्य है कि बिना पुस्तकों को पढे मनुष्य विद्वान नहीं बन सकता परंतु उन ग्रंथों का अध्ययन करके जब मनुष्य किसी उच्चपद पर पहुंचता है तो उसे उन्हीं ग्रन्थों में गल्तियां दिखाई पड़ने लगती हैं , और तो और लोग यहाँ तक भी कह देते हैं कि लेखक ने शायद भूलवश ऐसा लिख दिया होगा | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" यह देखकर दुखी हो जाता हूँ कि इन तथाकथित विद्वानों ने तुलसीदास , वाल्मीकि एवं वेदव्यास जी जैसे लेखकों को ही पढकर विद्वता अर्जित की , उन्हीं के लिखे ग्रंथों का पाठ करते जीवन यापन भी कर रहे हैं ! इतना सब कुछ होने पर भी वे अपनी विद्वता के मद में इन्हीं महान चरित्रों पर भी उंगली उठाने से नहीं चूकते | मैं तो कहता हूँ कि आज के ये तथाकथित विद्वान जो रट्टू तोते से अधिक कुछ भी नहीं है , क्या वे भी एक चोपाई या श्लोक की रचना कर सकते हैं ?? शायद नहीं ! यह सत्य है कि नकारात्मकता के वशीभूत होकर मनुष्य को स्वयं का दोष कभी नहीं दिखाई पड़ता वह सदैव दूसरों में ही दोष देखता है , जो कि स्वयं उसके लिए घातक है | ये विद्वान यह जानते भी हैं कि हाँ हम व्यर्थ की टिप्पणी कर रहे हैं परंतु अपनी विद्वता के अहंकार में वे कुछ क्षणों के लिए नयनविहीन हो जाते हैं |* *मनुष्य चाहे जितना विद्वान हो जाये , परंतु वह कभी अपने पिता का पिता नहीं हो सकता और न ही उसे अपने पिता पर उंगली उठाने का दुस्साहस ही करना चाहिए | अन्यथा परिणाम सुखद नहीं हो सकता |*